Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 281
________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं इस बार वे वैद्य का रूप वैनाकर आए । उन्होने मुनि के समीप जाकर उनसे अपने रोग का उपचार करा लेने की बहुत अनुनय-विनय की और कहा ६० "केवल एक वार हमारी औषधि का प्रयोग कर लीजिए। आप रोगमुक्त हो जायँगे ।" किन्तु मुनि तो समभाव मे स्थित थे । उन्हें रोग की कोई चिन्ता ही नही थी । चिन्ता तो दूर, उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था । बार-बार वैद्यी के आग्रह करने पर मुनि ने पूछा रोगो की औषध ही जानते है, अथवा कर्म रोग " आप शरीर के की भी ?" प्रश्न विचित्र था और उत्तर भी एक ही था - " शरीर के रोग ही दूर किए जा सकते है । कर्म रोग का इलाज तो हमारे पास नही है ।" तब मुनि मुस्कराए। उन्होने अपनी एक अंगुली पर थूका । वह अँगुली कचनवर्णी होकर चमक उठी । यह प्रयोग देह पर और भी जहाँ-जहाँ किया गया, वही वही काया नीरोग हो उठी । यह देखकर देवो को जो आश्चर्य हुआ उसका शमन करने हेतु मुनि ने कहा " शरीर की व्याधियों का उपचार तो मेरे पास भी है । वैद्यराझ । लेकिन मुझे तो इस शरीर से कोई प्रयोजन है नही । इसके रोगी या नीरोग रहने से मुझे कोई बाधा नही है । मुझे तो अपनी आत्मा पर चढे कर्म - रज की मलीनता को दूर करना है । शरीर के सौदर्य को बहुत देखा, अव तो आत्मा के सौदर्य को देखना है ין इस अद्भुत मुनि को प्रणाम कर देव अपने लोक मे चले गए । देवेन्द्र को उन्होने कहा— "प्रभु | आप ठीक हो कहते थे । सनत्कुमार 1 मे दूसरा नहीं है । " जैसा सुन्दर पुरुष सृष्टि - उत्तराध्ययन सूत्र

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