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पुत्रवधू
कोई भी गृह जिस लक्ष्मी से सुख-सम्पन्न बनता है, ऐसी एक गृह लक्ष्मी की यह छोटी-सी कहानी है
धन्ना सार्थवाह राजगृही नगरी में निवास करते थे । अपार धनसम्पत्ति के स्वामी थे । लोग उन्हें दूसरा कुबेर ही मानते थे । परोपकारी, दयालु, दानी ऐसे कि लोग उनके द्वार पर जमघट लगाए ही रहते । कोई आर्थिक सहायता की याचना से, कोई अन्य प्रकार के परामर्श हेतु । उनकी पत्नी भद्रा भी पति की पूर्ण अनुगामिनी थी, बल्कि कहिए कि उनकी छाया ही थी, उतनी ही गुणवती, वैसी ही आदर्श ।
उनके चार पुत्र थे - धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित | चारो पुत्रो के विवाह हो चुके थे ।
एक वार श्रेष्ठि को विचार आया -- समय परिवर्तनशील है । जीवन नश्वर है । पल का भी भरोसा नही । जिस प्रकार बिजली इस क्षण चमकती है और दूसरे ही क्षण विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार यह जीवन भी है । इस संसार मे आना ओर जाना लगा ही रहता है । वडे से बडे समर्थ व्यक्ति इस संसार मे आए और चले गए। कोई सदा नही रहा ।
यह विचार मस्तिष्क मे उपजने पर श्रेष्ठि ने निश्चय किया कि जव तक मैं हूँ, अपने सामने ही अपने परिवार की व्यवस्था करदूँ । आगे जाने क्या हो, क्या न हो ?
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