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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ
दर्शन का लाभ प्राप्त नही हुआ । उपदेश सुनने से भी वह वचित रहा । परिणाम यह हुआ कि उसकी रुचि वदल गई । रुचि वदल जाने से उसके सम्यक्त्व के पर्यायो की हीनता होती चली गई और मिथ्यात्व के पर्याय बढते चले गए । होते-होते एक दिन ऐसा भी आया कि वह पूर्ण रूप से मिथ्यात्वी हो गया ।
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एक बार उसने तेला व्रत ग्रहण किया । ग्रीष्म ऋतु थी, ज्येष्ठ का महीना था । व्रत ग्रहण करके वह पोपधशाला मे विचरण करने लगा ।
अब हुआ यह कि जब उसका व्रत पूर्ण होने को था, तभी वह भूख और प्यास से बहुत पीडित हुआ । उस पीडा के परिणामस्वरूप उसके मन मे यह विचार आया—वे सार्थवाह आदि धन्य है, भाग्यवान है, जिनकी राजगृह नगर से बाहर बहुत-सी बावडियाँ, पुष्करिणियाँ अथवा सरोवरो की पक्तियाँ है । उनसे बहुत से लोगो को सुख मिलता है । लोग उनके जल से स्नान करते है, पानी पीते हे-ओर अपने शरीर का ताप मिटाते है । अत. में भी कल प्रभात होने पर राजा से आज्ञा लेकर नगर से बाहर एक सुन्दर पुष्करिणी बनवाऊंगा ।
मन ही मन अपनी पुष्क
यह विचार करते-करते नन्द मणिकार ने रिणी के लिए स्थान का निश्चय भी कर लिया । उसने तय किया कि वह उत्तर-पूर्व दिशा में, वैभार पर्वत के समीप ही अपनी पुष्करिणी बनावाएगा। उम पुष्करिणी का छोटा-सा सुन्दर सा नाम वह रखेगा -- नन्दा |
वह दिन समाप्त हुआ । उसका पोपध व्रत पूर्ण हुआ । स्नानादि स निवृत्त होकर उसने राजा के लिए कुछ बहुमूल्य उपहार लिए और उनकी नेवा मे पहुँचा । राजा को उपहार समर्पित कर उसने अपनी अभिलापा प्रकट वी
'हे राजन् | मैं आपकी आज्ञा पाकर नगर से बाहर एक पुष्करिणी खुदवाना चाहता हूँ ।"
राजा को इस शुभ कार्य मे भला क्या आपत्ति हो सकती थी ? नन्द रिकी प्राथना स्वीकार करते हुए उसने कहा