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फिर क्या हुआ
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४५.
के अनुसार उसने उन व्रतो को पुन अंगीकार किया। साथ ही उसने यह अभिगह भी धारण किया कि आज से मृत्यु पर्यन्त मुझे वेले-वेले की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरना कल्पता हे ।
देखो गौतम । जब शुभ कर्मो का उदय होता है तो जीव स्वयं ही कल्याण के पथ पर आगे वढता है । उस मेढक ने अव व्रत ग्रहण कर लिए और अभिगह धारण करके वह रहने लगा । यही से उसके विकास और भावी ऋद्धि का सूत्रपात होता है ।
एक बार अनुक्रम से विचरता हुआ मैं पुनः राजगृह आया । गुणशील चैत्य मे हो ठहरा । बन्दना करने के लिए परिपद् निकली। तुम जानते ही हो कि उस 'नन्दा' पुष्करिणो मे प्रतिदिन अनेक लोग आते थे। उस समय भी जो लोग वहाँ पर गए हुए थे उन्होने आपस मे बातचीत को
'अहा ! इस नगरी का पुण्योदय हुआ है । स्वयं भगवान महावीर यहाँ पधारे है । चलो, गीघ्र चलो। हम भी भगवान के दर्शन का पुण्य लाभ ले ले | हमारा यह भव और परभव इस पुण्य से शुभ हो जायगा ।
लोगो के मुख से यह समाचार सुनकर उस मेंढक ने भी निश्चय किया- अहा ! निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर पधारे है । तव मै भी क्यो न जाकर भगवान की वन्दना करू ?
वह मेढक उस वापी से निकलकर भगवान के दर्शनों की अभिलापा और उत्कंठा अपने हृदय मे धारण किए हुए राजमार्ग पर आया और गुणशील उद्यान की ओर चल पडा ।
उधर राजा श्रेणिक भी मेरी वन्दना करने के लिए अनेक लोगो के माथ अपने महल से निकलकर राजमार्ग से होता हुआ चला आ रहा था । संयोग की बात है गौतम, कि राजा के अश्व के खुरो से वह मेढक कुचल गया। उसकी आँते बाहर निकल आई ।
अव वह मेढक विलकुल अशक्त हो गया । उसके जीवन की आशा न रही । यह देखकर वह किसी प्रकार मार्ग से एक ओर हट गया । वहाँ अपने दोनो हाथ जोडकर, तीन बार मस्तक पर आवर्तन करके, मस्तक पर अजलि करके वह इस प्रकार वोला