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प्रश्न और उत्तर
उसी समय की बात है, चमरचंचा नामक राजधानी मे, काली नामक देवी, कालावतंसक भवन मे काल नामक सिंहासन पर विराजमान थी। वह देवी बडी ऋद्धि सम्पन्न थी। चार हजार सामानिक देवियों, चार महतरिका देवियो, परिवार सहित तीनो परिपदो, सात अनीको, सात अनीकाधिपतियो, सोलह हजार आत्मरक्षक देवो तथा उस कालावतंसक भवन के अन्य निवासी असुर कुमार देवो और देवियो के साथ परिवृत्त होकर वह सुखपूर्वक संगीत इत्यादि का आनन्द लेनी हुई विचरती थी।
उस समय वह काली देवी अपने अवधिज्ञान द्वारा उस सम्पूर्ण जम्बू द्वीप को देख रही थी। उसने देखा कि इस द्वीप के भरत क्षेत्र मे राजगृह नगर के गणशील उद्यान मे संयम और तप से अपनी आत्मा को प्रकाशित करते हुए भगवान महावीर विराज रहे है। भगवान की परम मनोहर छवि को देख कर वह अत्यन्त आनन्दित और सन्तुष्ट हुई। उसका चित्त प्रसन्न हो गया, मन-प्रीति से भर गया। वह तुरन्त अपने सिंहासन से उठी, पादपीठ से नीचे उतरी, पादुका उतारकर वह तीर्थकर भगवान के सम्मुख आठ कदम आगे वढी । फिर उसने वाएँ घुटने को ऊपर रख और दाएँ घुटने को जमीन पर टेक कर मस्तक को कुछ ऊंचा करके, हाथो को जोडकर विधिपूर्वक, विनयपूर्वक इस प्रकार बोली
_ 'सिद्रि को प्राप्त अरिहन्त भगवन्तो को नमस्कार हो । सिद्धि को प्राप्त करने की इच्छा करने वाले श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो । यहाँ रही हुई मैं वहाँ स्थित भगवान की वन्दना करती हूँ, भगवान मुझे देखे ।'
_देवी ने श्रद्धासहित भगवान को वन्दन किया और वन्दन के पश्चात् पूर्व दिशा की ओर मुख करके वह अपने सिंहासन पर विराजमान हो गई।
देवी के मन मे अव तक भगवान की मनोहर छवि तैर रही थी। विचार करते-करते उसके मन मे यह इच्छा हुई कि वह स्वयं भगवान की सेवा मे उपस्थित होकर उनकी वन्दना तथा पर्युपासना करे । शीघ्र ही उसने इस विचार को निर्णय मे बदल दिया और आभियोगिक देवो को बुलाकर आज्ञा दी