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महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएं निदान प्रमाण के अभाव मे रोहिणेय को दण्ड नही दिया जा सकता था । वह मुक्त कर दिया गया।
किन्तु अव रोहिणेय का हृदय परिवर्तित हो गया था। भगवान की कृपा-किरण ने उसके आत्मलोक को प्रकाशित कर दिया था। अन्धकार से वह प्रकाश मे लौट आया था । अत स्वेच्छा से वह मम्राट श्रेणिक की सेवा मे उपस्थित होकर हाथ जोडकर बोला
“सम्राट | मुझे अपने द्वारा किए हुए कुकर्मो के लिए आज आन्तरिक पश्चात्ताप है । मैं स्वयं ही अपने पाप-कर्म का दण्ड प्राप्त करने के लिए आपकी सेवा मे उपस्थित हुआ हूँ। आप मेरे विरुद्ध कोई प्रमाण प्राप्त नही कर सके, कभी कर भी नही सकते थे। किन्तु, प्रभु । मैं चोर हूँ । समीप ही वैभार गिरि की कन्दराओ मे मेरे द्वारा चुराई गई सारी सम्पत्ति सुरक्षित पडो है । उसे मँगा लीजिए । मुझे अब उसकी कोई आवश्यकता नहीं। मेरे पिता ने मृत्यु से पूर्व मुझे शिक्षा दी थी कि किसी साधु की बात कभी मत सुनना। किन्तु मेरे पुण्योदय मे एक वार भगवान महावीर का वचन मेरे कानो मे पड़ गया था और आज उसी वचन ने मेरे प्राणो की रक्षा कर ली।
प्राणो की रक्षा ही क्या, मेरी आत्मा को ही उन वचनो ने उवार लिया है । सम्राट । जिनके वचन मात्र इतने पुण्यकारक है, उन्ही की शरण मे अब मुझे जाना है । स्वीकार करता हूँ कि मेरा ही नाम रोहिणेय है, मुझे दण्ड दीजिए, मै चोर हूँ ।”
सम्राट श्रेणिक ने कहा"तुम चोर नही हो । कभी रहे होगे । जाओ तुम मुक्त हो।”