Book Title: Mahabharatam
Author(s): Nagsharan Sinh, 
Publisher: Nag Prakashan Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 685
________________ श्रीमन्महाभारतम् :: श्लोकानुक्रमणी ६८० विचित्रवीर्यस्य सुतस्य(आ) १९२.१८ विच्छिन्नशरपातत्वा (द्रोण) १५८.१४ विजिज्ञासुरिह प्राप्त (शांति) ८२.५३ विज्ञातमेव भवतु करिष्ये (अनु)१०.१६ विज्ञायातीतवयसं (शल्य) ३६.३० विचित्रवीयों ब्रह्मर्षे (आ) १०५.३३ विच्छिन्नानि तथा (द्रोण) १७१.४२ विजितश्च त्वया मृत्युर्यो (अनु) २.८० विज्ञातं वो मया (शांति) ३४०.५० विज्ञायाध च तां कण्वो (आ) ७३.२५ विचित्राणि च वासांसि (आ) १.१३ विजयाकूबरांस्तत्र (दोण) ३६.३२ विजिता: पुण्यकर्माणो (कर्ण) १६.१८ विज्ञातरूपः स तदा(शांति) २८६.१७ विज्ञायतन्निशायुद्ध (द्रोण) १७६.५ विचित्रान्पृतनामध्ये (द्रोण) १९८.२७ विजयत्य च रिपून (कर्ण) ३४.१४६ विजितांश्चाप्यमन्यन्त (वन) २५७.१९ विज्ञातश्च कथं देवः (शल्य ४७.१७ विज्ञेयं ब्राह्मण ? (आश्व) ५०.४८ विचित्राभरणाश्चैव (वन) १७३.३८ । विजयं लभते नित्य (शांति) १००.२६ विजिते पाण्यैस्तु(आश्व) १५.१ विज्ञातुमिच्छत्यवनी (आ) १६३.१६ विडीनं परिडीनं च (कर्ण) ४१.२७ विचित्राभरणाः सा (उद्योग) ८.४ विजयस्ते ध्र व पार्थ प्रियं(सभा)२५.७ विजिते पाण्डवं राजन् (आश्व) १५२ विज्ञानबलपूतो यो (शांति) १३२.६ बिचित्रायुधामण्या (उद्योग)१५८.१३ विजयस्य च तत्कम (आश्व) ८५.३ विजितेय धरा कृत्स्ना(आश्व) १५.१२ विज्ञानबलमास्थाय (शांति) १३२.३ वितथ तु वदेयुयं धर्म (सभा) ६८.८० विचित्राथपदारुपान (आ) २.३५ विजयाद्यवनप्राप्त (भीष्म) १२.४३ विजितेयं मही कृत्स्ना (शांति) १.१३ विज्ञानार्थ मनुष्याणां (वन) २१०.२ वितथं नोक्तपूर्व में (आ) ११५.१८ विचित्रविविधाकार (द्रोण) १८७.४५ विजयाय प्रयास्यामि (सभा) २५.४ विजित्य क्षममाणस्य(शांति) १०२.३० विज्ञानार्थ हि पंचाना(शांति) २७३.३ वितर्कयन्तं तु नरर्षभस्तथा(विरा)७.८ विचित्र श्च परिस्तोम (द्रोण) ४९.२५ विजयाय हि निहि (शांति) ६७.२६ विजित्य च यदा कर्ण (भीम) ६५.१२ वितस्तां च महाराज(वन) १८८.१०५ विचिन्वन्तस्तपसा तत्स्थ (अनु) १८.७६ विजयी च रणे नित्यं (भीष्म) ११२.२४ विजित्य चाहवे शान् (सभा) २७.१५ विज्ञानेष्वपि चास्त्राणां (आ) २२७३ वितस्तां च समासाद्य (वन) ८२.८६ राधः (कण) ५६.४ विजये घृतसंकल्पा मृत्यु (कर्ण) ४७.६ विजित्य पर्वतान्सर्वान्ये (सभा) २७.४ विज्ञाप्ती व महादेव (शल्य) ३८४२ वितस्तां पश्य राजेन्द्र (वन) १३०.२० विचेतसो हतोत्साह (द्रोण) १९३.३ विजयोध्र वमेवास्य (कर्ण) ८७.६ विजित्य पाण्डुपाञ्चा(द्रोण) १२२.७३ विज्ञाय क्रियता तस्मात् (विरा)२७.१० वितस्थे सोऽन्तरिक्षे च (आ) ५८.६ विचेता न्यपतद्भ,मौ (द्रोण) ४६.१४ विजयो नाम रुद्रस्य (वन) २३१.३८ विजित्य पृथिवी सर्वा (वन) १९१.२६ बिज्ञाय तदहं सर्व (वन) २०.३८ विद्यमान विहगस्त (स्त्री) २५.२३ विचेताः परमोद्विग्नो(द्रोण) १६०.५६ विजयो वौतिहोत्रोऽङ्गो (आ) १.२३३ विजित्य पृथिवीं सर्वाविव) २५४.१६ विज्ञाय तं बलोन्मन्त (वन) १४७.१५ वितेवास्मान समाधते (उद्योग) १५१.१६ विचेष्टमानस्य च तस्य (वन) ११२.६ विजयो वै ध्र वः कृष्ण (शल्य)३३.१६ विनित्य सर्वसैन्यानि (द्रोण) १३०.५ विज्ञायते ते मनसोऽप्रहर्ष (सभा) ५८.५ वित्तकामानिह प्राप्ता (वन) १८.१५ विचेष्टमाना धरणीतल(आ) १८७.१९ विजहृति मुदा युक्तौ (आश्व) १५.३ विजित्य सागरं प्राप्तं (आ) २.१७६ विज्ञायन्ते हि यर्वेदाः(शांज्ञि)२३७.१९ वित्तकामाविह प्राप्ती (वन) ६८. विचेष्टाऽवस्थिता संख्ये (द्रोण) १८.६ विजानता मोक्ष एष (शाति) २७८.२१ विजित्यकरथेनंव कन्या(अनु)१६८.२७ विज्ञाय मानुषं लोक (सभा) १२.२४ वित्तार्थिनमनुप्राप्तं (वन) ९८४ विचेष्टितुच कौन्तेय (वन) १८७.१८ विजिगीषोस्तथा (शांति) १०७.६ विजेता नाभवत्कश्चित्(आ)२२१.१३ विज्ञाय यातुधानी तां (अनु) ६३.८५ वित्तेन कथितेनान्ये (आ) १०२.१४ विच्छिद्यन्ते समारब्धा(शांति) २४.२२ विजिग्ये पुरुषव्याघ्रः(द्रोण) १८५.२० विजेष्यामि रणे पाण्ड(वन) २५२.३२ विज्ञाय स महाप्राज्ञो (शांति) ११७.२० वित्ररता दैत्यनार्यस्ताः (वन) ७२.२५ Jain Education Intersalon For Private Personal use only www.alinelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840