Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 16
________________ सम्पादकीय १५ लिपि में अनुस्वार और वर्णद्वित्व बोधक संकेत एक बिन्दु ही होता है। सम्भव है कि इसी कारण से यह भ्रम हुआ है, अतएव ऐसे स्थानों पर हमने 'खइगस० उवसमस०, सासणस०, वेदगस०' ऐसा संशोधित पाठ रखा है। कहीं कहीं, 'जंहि' के स्थान में 'जम्हि' और 'तंहि' के स्थान में 'तम्हि' इसी नियम के अनुसार किया गया है। ६. मूल में 'कायजोगि' पाठ के स्थान में 'काजोगि' पाठ बहुलता से उपलब्ध होता है। मुद्रित प्रति (प्रकृतिबन्ध) में भी यह व्यत्यय देखा जाता है। मूल में इस प्रकार के पाठ के लिपिबद्ध होने का कारण क्या है, इसकी पुष्टि में यद्यपि हमें निश्चित आधार नहीं मिला है; तथापि 'षट्खण्डागम' के समग्र सूत्रों में 'कायजोगि' पाठ ही प्रयुक्त हुआ है; यह देखकर हमने 'काजोगि' पाठ के स्थान में सर्वत्र ‘कायजोगि' पाठ को स्वीकार किया है। इसी प्रकार थोड़े बहुत संशोधन और भी करने पड़े हैं, पर ऐसा करते हुए सर्वत्र मूल पाठ की रक्षा का पूरा ध्यान रखा है। मंगलाचरण हम यह पहले ही लिख आये हैं कि 'महाबन्ध' के मुख्य अनुयोगद्वार चार हैं-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध। इन चारों अनुयोगद्वारों की रचना स्वयं आचार्य भूतबलि ने की है। यद्यपि ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल करने की परिपाटी पुरानी है, पर 'षट्खण्डागम' के जीवस्थान और वेदनाखण्ड को छोड़कर शेष खण्डों के प्रारम्भ में स्वतन्त्र मंगल सूत्र उपलब्ध नहीं होता। उसमें भी जीवस्थान के प्रारम्भ में मंगलसूत्र के कर्ता स्वयं पुष्पदन्त आचार्य हैं। आचार्य वीरसेन ने मंगल के निबद्ध और अनिबद्ध ये दो भेद करते हुए लिखा है ___तच्च मंगलं दुविहं-णिबद्धमणिबद्धमिदि। तत्थ णिबद्धं णाम जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं। जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोक्करो तमणिबद्धमंगल । इदं जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं। (जीवट्ठाण-संतपरूवणा, पृ. ४१) ___ 'मंगल दो प्रकार का है-निबद्ध मंगल और अनिवद्ध मंगल। जो सूत्र के आदि में सूत्रकार के द्वारा इष्ट देवता नमस्कार निबद्ध किया जाता है वह निबद्ध मंगल है और जो सूत्र के आदि में सूत्रकारके द्वारा इष्ट देवता नमस्कार मात्र किया जाता है वह अनिबद्ध मंगल है। यह जीवस्थान निबद्ध मंगल है।' - इस निबद्ध और अनिबद्ध पद का अर्थ और अधिक स्पष्ट रूपसे समझने के लिए वेदनाखण्ड के कृति अनुयोग द्वार का यह उद्धरण विशेष उपयोगी है। यहाँ वीरसेन स्वामी लिखते हैं णबद्धाणिबद्धभेएण दविहं मंगलं। तत्थेदं किंणिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि ण ताव णिबद्धमंगलमिदं महाकम्भपयडिपाहुडस्स कदियादिचउवीसआणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलटुं तत्तो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो।' ___निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार का है। उनमें से यह मंगल क्या निबद्ध है या अनिबद्ध? यह निबद्ध मंगल तो हो नहीं सकता, क्योंकि कृति आदि चौबीस अनुयोगों में विभक्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के आदि में गौतम स्वामी ने इसकी रचना की है और भूतबलि भट्टारक ने मंगल के निमित्त वहाँ से लाकर इसे वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में स्थापित किया है, अतः इसे निबद्ध मंगल मानने में विरोध आता है।' इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि जीवस्थान के प्रारम्भ में जो पंच नमस्कार सूत्र उपलब्ध होता है, वह स्वयं आचार्य पुष्पदन्त की कृति है और वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में जो ४४ मंगलसूत्र आये हैं वे हैं तो स्वयं गौतम स्वामी की कृति, पर आचार्य भूतबलि ने उन्हें वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में लाकर मंगल के निमित्त स्थापित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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