Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ १४ महाबन्ध देवेसु पंचणा०, छदसणा० बारसक० भयदुगुं० ओरालिय० तेजाकम्मः वण्ण० ४ अगु० ४ बादरपज्ज्त-पत्तेय-णिमिणं तित्थयरं पंचंतराइयाणं णत्थि अंतरं। थीणगिद्धितिगं मिच्छत्तं अणंताणु ४ जह० अंतो०। इत्थि० णदुंसक० पंचसंठा० जह० एग०, उक्क० अट्ठारस-सागरोवमाणि सादिरेयाणि। एइंदिय-आदाव-थावराणं जह० एग०, उक्क० वे साग सादिरे । एवं सव्वदेवेसु अप्पप्पणो हिदिअंतरं कादव्वं । एइंदिएसु पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्तं सोलसक० भयदुगुं० ओरालियतेजाकम्म० वण्ण ४ जह० एग०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । दो आयु० णिरयभंगो०। तिरिक्खगदि-तिरिक्खगदिपाओ० उज्जोवाणं जह० एग०, उक्क० अट्ठारससागरोवमाणि सादिरेगाणि। एइंदिय-आदाव-थावराणं जह० एग०, वे साग ७ सादिरेयाणि। एवं सव्वदेवेसु अप्पप्पणो द्विदिअंतरं कादव्वं। (मु०प्र०पृ०, पं० ७५-७६) यह पाठ आदर्श प्रति में भी इसी प्रकार उपलब्ध होता है। किन्तु यह होना इस प्रकार चाहिए देवेसु पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-भय-दुगुं०-ओरालिय०-तेजा०-कम्म-ओरालियअंगों-वण्ण० ४ अगु० ४ बादर- पज्जत-पत्तेय-णिमिणं-तित्थयर-पंचंतराइयाणं णत्थि अंतरं। थीणगिद्धितिग-मिच्छत्तअणंताणु० ४ जह अंतो०, उक्क० एकत्तीससाग० देसू० । सादासा०-पुरिस०-चदुणोक० मणुस०-पंचिदिय० समचदु-वज्जरिस०-मणुसाणु०-पसत्थवि-तस०- थिरादिदोण्णियुगल-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जस०-अजस० जह एगस० उक्क० अंतोमु० । इत्थिवे० णदुंस-पंचसंठाण-पचसं० अत्पसत्यवि-दूभग- दुस्सर-अणादेज्जणीचुच्चागोदाणं जह० एगस०, उक्क० एक्कत्ती साग० देसू। दो आयु० णिरयभंगो। तिरिक्खगदितिरिक्खगदिशरू उज्जोवाणं जह० एग०, उक्क० अट्ठारससागरोमाणि सादिरेगाणि। एइंदिय- आदाव-थावराणं जह० एग० उक्क० बेसाग० सादि० । एवं सव्वदेवेसु। णवरि अप्पप्पणो विदि अंतरं कादव्वं । हमें प्रस्तुत प्रकरण में इस प्रकार के जो पाठ उपलब्ध हुए, उन्हें हमने पादटिप्पण में देकर मूल में संशोधन कर दिया है। इसके लिए देखें पृष्ठ २०६ आदि। ४. प्रति में कुछ प्रयोगों में दीर्घ ईकार की मात्रा के स्थान में ह्रस्व इकार की मात्रा दिखाई देती है। जान पड़ता है कि प्राचीन कनाडी लिपि में ह्रस्व और दीर्घ स्वर का कोई भेद नहीं किया जाता रहा है। अतः हमने ऐसे स्थलों पर व्याकरण के नियमानसार ही ह्रस्व और दीर्घ स्वर के रखने का प्रयत्न किया है। ५. आदर्श प्रति में 'वणप्फदि' शब्द के स्थान में कहीं-कहीं वणफदि' ऐसा प्रयोग भी दृष्टिगोचर हुआ है। इसे कहीं-कहीं लिपिकार ने पीछे से लाल स्याही से संशोधित भी किया है। पर कहीं वह अशुद्ध ही रह गया है। हमने सर्वत्र 'वणप्फदि' पाठ ही रखा है। ६. प्राचीन कानडी लिपि में द और ध प्रायः एक से लिखे जाते हैं। इसके कारण आदर्श प्रति में 'उपणिधा' के स्थान में प्रायः 'उपणिदा' पाठ उपलब्ध हुआ है। यह स्पष्टतः लिपिकार की असावधानी है, इसलिए हमें जहाँ 'उपणिदा' पाठ उपलब्ध हुआ वहाँ उसे 'उपणिधा बना दिया है। ७. समग्र ग्रन्थ में किसी वाक्य या शब्द की पूर्ति बिन्दु रखकर की गयी है। कहीं-कहीं ये बिन्दु जहाँ चाहिए वहाँ नहीं भी रखे गये हैं और कहीं-कहीं उनकी आवश्यकता नहीं होने पर भी वे रखे गये हैं। यह व्यत्यय आदर्श प्रति में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। मुद्रित प्रति के साथ आदर्श प्रति का मिलान करने से तो यह भी विदित हुआ है कि इस बात का प्रायः बहुत ही कम ध्यान रखा गया है कि मूल प्रति में कौन शब्द या वाक्य कितना निर्दिष्ट है और कितने शब्दांश या वाक्यांश की पूर्ति के लिए बिन्दु का उपयोग किया गया है। पहले हम मूल प्रति और आदर्श प्रति के कुछ पाठान्तरों की तालिका दे आये हैं। उसके देखने से इसका स्पष्ट पता लग जाता है। ऐसी अवस्था में हमें इस बात का स्वतन्त्र रूप से विचार करना पड़ा है। फलस्वरूप जहाँ बिन्दु की हमने अनावश्यकता अनुभव की, वहाँ से उसे हटा दिया है और जहाँ उसकी आवश्यकता अनुभव की वहाँ उसकी पूर्ति कर दी है।। ८. आदर्श प्रति में अनेक स्थलों पर सम्यक्त्व मार्गणा के प्रसंग से खइगसं०, उपसमसं०, सासणसं०, वेदगसं०' ऐसा पाठ उपलब्ध हुआ है। यहाँ 'स' के ऊपर अनुस्वार की आवश्यकता नहीं है। प्राचीन कनाडी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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