Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ १२ महाबन्ध २०. आदेसेण णिरयेसु पंचणाणा० छदंसणा० सादासादं बारसकसा० सत्तणोक० मणुसगदि पंचिंदि० ओरालि० तेजाक० समचदु० ओरालिय० अंगो वज्जरिस० वण्ण० ४ (आ. प्र. ) आदेसेण णिरएसु पंचणाणावरण छदंसणावरण सादासादं बारसकसाय-सत्तणोकसायाणं मणुसगदि-पंचिंदिय- ओरालियतेजाकम्मइय- समचदुरससंठाण - ओरालिय० अंगोवंग - वण्ण० ४ ( मु. प्र.पृ. ४१, पं. ३-५) २१. उंसग (आ.प्र.) णउंसक ( मु.प्र.पू. ४१, पं. ८) २२. मणुसगदि मणुसगदिपा० को बंधो ? (आ.प्र.) मणुसगदि मणुसगदिपाओग्गाणुपुव्वि-उच्चागोदाणं को बंधको ? (मु. प्र. पू. ४१, पं. १२) २३. तेजाकम्म० (आ.प्र.) तेता कम्म० ( मु.प्र. पृ. ४३, पं. ३) २४. एवं सव्वअपज्जत्ताणं सव्वविगलिंदियाणं सव्वविगलिंदि० (आ.प्र.) एवं सव्वअपज्जत्ताणं सव्वएइंदियाणं सव्वविगलिंदियाणं च । ( मु.प्र.पृ. ४३, पं. ७) २५. चदुआयु० तिरिक्खगदितिगं ओधं (आ.प्र.) चदुआयु० तिरिक्खगदि ओघं । (मु. प्र. पृ. ४७, पं. ७) २६. अपचक्खाणावर० ४ तित्थयरं जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । अपच्चक्खणावर० ४ जह० अंतो०, उक्क. तेत्तीसं साग० । देवगदि ४ जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादि० । ( आ. प्र. ) अपचक्खाणावर० ४ तित्थयरं जह० अंतो० । उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । अपच्चक्खाणा० ४ जह० अंतो० उक्क० बादालीसं सा० सादि० । अथवा तेत्तीसं सा० सादिरे० परिज्जदि । दो आयु ओघं । मणुसगदिपंचगं जह० अन्तो० । उक्क० तेत्तीसं सा० । देवगदि० ४ जह० एग० । तिण्णि-पलिदो० सादि० । (मु. प्र. पू. ६१, पं. १-५) २७. जह० एग०, उक्क० (आ.प्र.) जह. । उक्क० ( मु.प्र. पू. ६१, पं. ५ ) २८. तिरिक्खाणुपु० परघादु० तस० ४ (आ.प्र.) तिरिक्खाणु तस. ४ ( मु.प्र. पू. ६३, पं. १ ) २६. अनंताणुबं० ४ जह० ए०, (आ.प्र.) अनंताणुबं. ४ एय. । (मु. प्र. पू. ६३, पं. ८) यहाँ पर हमने विविध तथ्यों को स्पष्ट करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कुल २६ पाठान्तर ही उपस्थित किये हैं। इनके आधार से निम्न प्रकार निष्कर्ष फलित होते हैं १. प्रतिलिपि करते समय कहीं-कहीं मूल पाठ को बहुत ही कम ध्यान में रखा गया 1 उदाहरणार्थ- प्रथम पाठान्तर को ही देखिए । आदर्श प्रति के आधार से ज्ञात होता है कि मूल प्रति में 'रुजगहि' पाठ है; जब कि पं. सुमेरचन्द्र जी को उनके सामने उपस्थित प्रति में 'रुजुगम्हि' पाठ उपलब्ध हुआ है। दूसरे, तीसरे और चौथे पाठान्तरों से भी यही ध्वनित होता है। इन पाठों के देखने से तो यही जान पड़ता है कि मूल प्रति में आदर्श प्रति के अनुसार ही पाठ होने चाहिए । २. मूल के आधार से प्रतिलिपि करते समय दृष्टि भ्रम या अनवधानता के कारण किसी अक्षर, पद या वाक्य का छूट जाना बहुत सम्भव है । उक्त दोनों प्रतियों में ऐसे अनेक स्खलन देखने को मिलते हैं । इसके लिए देखो क्रमांक ५, ७, ६, १२, १७, २२, २५, २७ २८ और २६ के पाठान्तर । साधारणतः क्रमांक ५ से सम्बन्ध रखनेवाला पूरा स्थल पाठ की दृष्टि से विचारणीय है। मुद्रित प्रति के जिस पाठ का हमने यहाँ उल्लेख किया है वह शुद्ध है और आदर्श प्रति में वह त्रुटित है । तथापि 'दंसणावरणीयस्स कम्मस्स किं सव्वबंधो णो सव्वबंधो?' इस पाठ के आगे 'सव्वबंधो वा णोसव्वबंधो वा' इतना पाठ और होना चाहिए, जो दोनों प्रतियों में त्रुटित जान पड़ता है। क्रमांक १३ में मुद्रित प्रति में 'चदुसंठाण' के बाद 'चदुसंघाद' पाठ है जो अर्थ की दृष्टि से असंगत है । पाँच बन्धन और पाँच संघात प्रकृतियों की बन्ध प्रकरण में अलग से परिगणना नहीं की गयी है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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