Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ सम्पादकीय ११ उपलब्ध होते हैं। यद्यपि हमारे सामने पं. सुमेरचन्द्र जी वाली प्रति नहीं है और न उसे प्राप्त करने का कोई प्रयत्न ही किया गया है, पर उस प्रति के आधार से जो प्रकृतिबन्ध मुद्रित हआ है वह हमारे सामने है। उसके साथ आदर्श प्रति (जो प्रति हमारे पास है) के कुछ पृष्ठों का हमने मिलान किया है। परिणामस्वरूप जो पाठान्तर हमें उपलब्ध हुए हैं, उनमें से कुछ पाठान्तर, उनका प्रकार दिखलाने के लिए हम यहाँ दे रहे १. रुजगम्हि (आदर्श प्रति)। रुजुगम्हि (मुद्रित प्रति पृ. २१) २. चउण्णमुट्ठी (आ. प्र.)। चदुण्हं वुडी (मु.प्र. पृ. २२) ३. तहा आरणच्चुदा (आ. प्र.)। तथ आरणअरणच्चुदा (मु. पृ. २३) ४. छढिं गेवज्जया (आ. प्र.) छट्ठी गेवज्जया (मु.प्र. पृ. २३) । ५. किं सव्वबंधो? णोसव्वबंधो। (आ.प्र.) किं सव्वबंधो णोसव्वबंधो? णोसव्वबंधो। (म.प्र. ३० पंक्ति १) ६. बंधो वि (आ.प्र.)। बंधोपि (मु.प्र. पृ. ३०, पंक्ति ४) ७. आदेसेण य। तत्थ ओघेण णाणांतराइ (आ.प्र.) आदेसेण य। णाणांतराइ-(मु.प्र.पृ. ३०, पं. ६) ८. वेदणीयस्स आयुगस्स गोदस्स च किं जहण्णबंधो (आ. प्र.) वेदणीय-आयु-गोदाणं किं जहण्णबंधो (म.प्र. पृ. ३०, पं. ८) ६. तत्थ ओघेण सादियबंधो....संतीओ भूयो (आ.प्र.) सादियबंधो..... संतिओ भूयो (मु.प्र. पृ. ३१, पृ. १-२) १०. एवं मूलपगदिअट्ठपदं भंगो कादव्यो (आ.प्र.) एवं मूलपगदि-अट्ठपदभंगा कादव्वा (मु.प्र.पृ. ३१, पं. ३) ११. ओघेण पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्तं सोलसकसायं भयं दुगुच्छा तेजाकम्म० वण्ण० ४ अगुरु० उपधा० णिमिणं पंचंतराइगाणं (आ. प्र.) ओघेण पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुच्छा-तेजा-कम्मइय-वण्ण० ४-अगुरु०-उप०-णिमिण पंचंतराइयाणं (मु.प्र. पृ. ३१ पं. ५-६) तत्थ ओघेण चोद्दस जीवसमासा णादव्वा भवंति। तं जहा (आ.प्र.) ओघेण चोद्दस-जीवसमासा णादव्वा भवंति। तं यथा (मु.प्र. पृ ३२, पं. २) १३. चदुसंठाण-चदुसंघडण-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वि उज्जोवं-(आ.प्र.) चदुसंठाण-चदुसंघाद-तिरिक्खगदिपा० उज्जो० (मु.प्र.पृ. ३३, पं. ६) णिद्दापयलाणं को बंधगो? को अबंधगो? अबंधो अपव्वकरणपविट्ठसद्धिसंजदेस (आ.प्र.) णिद्दापयलाणं को बंधगो, अबंधो को ? अबंधो मिच्छादिट्ठिपहुडि याव अपुव्वकरणपविट्ठसुद्धिसंजदेसु (मु.प्र.पृ. ३३, पं. ६-१०) १५. को बंधगो अबं०? (आ.प्र.)। को. बंधको, अबंधो? (मु.प्र.पृ. ३४, पं. ४) १६. को बं० को अबं० (आ.प्र.)। को बंधको को अबंधो (मु.प्र.पृ. ३४, पं. ८) १७. देवगदि० पंचिंदि० वेउव्वि० तेजाक० वेउव्वि० अंगो वण्ण० ४ देवाणु० अगुरु०४ पसत्थवि० थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदे० णिमिणं को बंधो? को अबंधो? (आ. प्र.) देवगदि० पंचिंदि० वेउव्वि० तेज्जाकम्म० समचदु० वेउव्वियं अंगोवंग-वण्ण० ४ देवाणु० अगुरु० ४ पसत्थविहायगदि. थीरा सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज णिमिणं को बंधको को अबंधको? (मु.प्र.पृ. ३५, पं. ६-६) १८. यथा दामे (आ.प्र.)। यथा छामे (मु.प्र.पृ. ३५, पं. २) १६. यस्स इणं (आ.प्र.)। जस्स इणं (मु.प्र.प्र. ४०, पं. १) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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