________________
मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या
भगवान महावीर ने मानसिक भावों के आरोह-अवरोह का जिम्मेदार सूत्र भावधारा (आत्मपरिणाम) को माना। इस सन्दर्भ में प्रसत्रचन्द्र राजर्षि का घटनाक्रम देखा जा सकता है। _प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यान की मुद्रा में खड़े थे। राजा श्रेणिक की सवारी उनके पास से गुजरी। किसी ने व्यंग्य किया - कैसा ढोंगी है ? स्वयं शत्रुओं से घबराकर संन्यासी हो गया और दुधमुहे बच्चे को मौत के मुंह में ढकेल आया। व्यंग्य को सुन राजर्षि स्वयं को भूल गए। वे भाव स्तर पर शत्रु राजा से युद्ध करने लगे और तब उनकी लेश्याएं अप्रशस्त होती गईं।
राजा श्रेणिक महावीर के उपपात में पहुंचे और वन्दन कर पूछा - भन्ते ! इस समय प्रसन्नचन्द्र राजर्षि आयुष्य पूरा करें तो कहां जायेंगे ? 'सातवीं नरक में' - महावीर के इस उत्तर ने श्रेणिक को आश्चर्य में डाल दिया।
कुछ क्षणों के बाद भगवान ने कहा - यदि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि अब आयुष्य पूरा करे तो सर्वोच्च देवलोक में जाएगा, क्योंकि उसकी भावधारा बदल गई है। निषेधात्मक भावों के स्थान पर विधेयात्मक भाव स्वीकृत हो गए हैं। प्रशस्त लेश्याओं में आरोहण करतेकरते परम शुक्ल लेश्या में पहुंच गए हैं। अब वे सोच रहे हैं - कौन किसका शत्रु है
और कौन किसका मित्र ? संसार के सारे रिश्ते अशाश्वत हैं , मेरी आत्मा ही शाश्वत है। बिना भाव बदले मन नहीं बदलता
राजा श्रेणिक ने प्रतिदिन पांच सौ भैंसों को मारने वाले काल शौकरिक को अहिंसक बनाने का प्रयत्न किया। हिंसा से विरत हो सके, इस हेतु एक खाली कुएं में जबरन उतार दिया। यद्यपि कालशौकरिक के हाथ हिंसा के लिए रुक गए पर मन नहीं थमा। वह वहीं पसीने के साथ शरीर का मैल उतार-उतार कर उससे भैंसें बनाता गया, एक-एक गिनती के साथ शाम तक पांच सौ भैंसों को मारने का संकल्प पूरा कर लिया। कालशौकरिक अहिंसक नहीं बन सका, क्योंकि उसके भाव नहीं बदल पाए। अचेतन मन के संस्कार निरन्तर अप्रशस्त लेश्या को गति दे रहे थे।
पाप का बन्ध मूर्छा से होता है और मूर्छा इतनी सघन होती है कि व्यक्ति बाहर से चेतना-शून्य होकर भी मूर्छा का हाथ पकड़ कर कोसों दूर चला जाता है। जैन दर्शन में स्त्यानर्द्धि नाम की निद्रा का उल्लेख है। इस निद्रा में प्राणी पूर्णतः चेतना शून्य होता है। कहीं भी जागृति नहीं, फिर भी निरन्तर अठारह पापों का कर्मबन्ध करता रहता है। मूर्छा और अज्ञानता से प्रेरित मन क्रिया न करके भी सिर्फ भावों के आधार पर कर्मसंस्कारों का संचयन कर लेता है। पापार्जन की प्रक्रिया अचेतन मन के स्तर पर होती है। अध्यवसायों की अप्रशस्तता और लेश्याओं की संक्लिष्टता से बिना क्रिया के मात्र भावों से व्यक्ति असत्संस्कारों से भर जाता है।
1. त्रिपष्टिशलाकापुरुष चरित्रम्, पर्व-10, सर्ग-9
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org