Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 187
________________ जैन साधना पद्धति में ध्यान 177 आधार के पद्धति दीर्घकाल तक टिकती नहीं और सिद्धान्त की क्रियान्विति बिना उसकी उपयोगिता सामने नहीं आती। अत: आचारांग, स्थानांग, उत्तराध्ययन सूत्र में प्रेक्षा के मौलिक और पुष्ट आधार उपलब्ध हैं जिसके आधार पर प्रेक्षाध्यान का व्यवस्थित साधनाक्रम निश्चित किया गया है। ___इस प्रक्रिया में बाहर-भीतर दोनों स्तरों पर मनुष्य बदलता है। शरीर तंत्र में विशेषतः ग्रंथियों के स्रावों में परिवर्तन होता है। मानसिक स्तर पर स्वभाव बदलता है तथा शरीर और मन का बदलाव आत्मा को प्रभावित करता है। मुख्य उद्देश्य है चित्तशुद्धि और उसके साथ स्वतः फलित होती है शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक तनावों की मुक्ति । प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रेक्षाध्यान के निम्न अंगों की चर्चा आवश्यक है :___ 1. कायोत्सर्ग 2. अन्तर्यात्रा 3. श्वासप्रेक्षा 4. शरीरप्रेक्षा 5. चैतन्यकेन्द्रप्रेक्षा 6. लेश्याध्यान 7. अनुप्रेक्षा। कायोत्सर्ग - साधना पद्धति में कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका प्रारम्भ भी कायोत्सर्ग और इसकी उच्चतम स्थिति भी है कायोत्सर्ग । कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है - काय का त्याग। मूलाराधना में काया के प्रति होने वाले ममत्व के विसर्जन को कायोत्सर्ग कहा गया है।' हरिभद्रसूरि ने प्रवृत्ति में संलग्न काया के परित्याग को कायोत्सर्ग कहा है। इन दोनों परिभाषाओं की समन्विति से कायोत्सर्ग की पूर्ण परिभाषा बनती है कि कायिक ममत्व और शारीरिक चंचलता का विसर्जन कायोत्सर्ग है । चैतन्य की अनुभूति करने के लिए शरीर की चंचलता और ममत्व दोनों त्याज्य हैं । इसे कायगुप्ति, कायसंवर, कायविवेक, कायव्युत्सर्ग और कायप्रतिसंलीनता भी कहा जाता है। कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोये तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है, फिर भी खड़ी मुद्रा में उसका प्रयोग अधिक हुआ है। अपराजित सूरि ने लिखा है कि कायोत्सर्ग करने वाला व्यक्ति शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की भांति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बाहों को घुटनों की ओर फैला दे। प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो जाए। शरीर को न अकड़ा कर खड़ा हो, न झुका कर हो। समागत कष्टों और परीषहों को सहन करें। कायोत्सर्ग का स्थान भी एकान्त और जीव-जन्तु रहित होना चाहिए। प्रयोजन की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो प्रकार होते हैं - चेष्टा कायोत्सर्ग और अभिनव कायोत्सर्ग।' प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का सन्तुलन रखने के लिए जो किया जाता है, उसे चेष्टा कायोत्सर्ग कहते हैं। चेष्टा कायोत्सर्ग करने का क्रम श्वासोच्छवास पर आधारित रहा है। भिक्षाचर्या आदि प्रवृत्ति के बाद मुनि के लिये कायोत्सर्ग करने का विधान चेष्टा कायोत्सर्ग कहलाता है। प्राप्त उपसर्गों को सहन करने के लिए, मानसिक विक्षेपों-आवेगों के लिए 1. मूलाराधना 1188 विजयोदयावृत्ति; 2. आवश्यक नियुक्ति 779 हरिभद्रीयवृत्ति 3. मूलाराधना 2/116 विजयोदया पृ. 278, 279; 4. आवश्यक नियुक्ति 1452 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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