Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 200
________________ 190 लेश्या और मनोविज्ञान हमारे दृश्य शरीर के दो मुख्य स्थान हैं - ज्ञानकेन्द्र और कामकेन्द्र। नाभि से ऊपर का स्थान ज्ञानकेन्द्र का और नीचे का स्थान कामकेन्द्र का है। हमारी चेतना इन दो के आसपास ज्यादा प्रवाहित रहती है। जब प्राणधारा नीचे की ओर बहती है , चित्त नीचे के केन्द्रों पर टिक जाता है तो वासना, आवेग, उत्तेजना सारी बुरी प्रवृत्तियां यहां जनमती हैं। जब प्राणधार ऊपर की ओर गति करती है, तब ज्ञानकेन्द्र जागृत होता है। अन्तः प्रज्ञा जागती है। सन्तुलन स्थापित होता है। __ चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान करने से होने वाली उपलब्धियां हैं - शक्तिकेन्द्र की निर्मलता से वासिद्धि, कवित्व और आरोग्य का विकास होता है। स्वास्थ्य केन्द्र की निर्मलता से अचेतन मन पर नियन्त्रण करने की क्षमता पैदा होती है। आरोग्य और ऐश्वर्य का विकास होता है । तैजसकेन्द्र के निर्मल होने पर क्रोध आदि वृत्तियों से साक्षात्कार की क्षमता पैदा होती है। प्राणशक्ति की प्रबलता भी प्राप्त होती है। आनन्द केन्द्र की निर्मलता द्वारा बुढ़ापे की व्यथा को कम किया जा सकता है, विचार का प्रवाह रुक जाता है, सहज आनन्द की अनुभूति होती है। विशुद्धि केन्द्र की सक्रियता से वृत्तियों के परिष्कार की क्षमता पैदा होती है। बुढ़ापे को रोकने की क्षमता पैदा करना भी इसका एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। ब्रह्मकेन्द्र की निर्मलता द्वारा कामवृत्ति के नियन्त्रण की क्षमता प्राप्त होती है। प्राणकेन्द्र की निर्मलता द्वारा निर्विचार अवस्था प्राप्त होती है। चाक्षुष केन्द्र की साधना के द्वारा एकाग्रता को सघन बनाया जा सकता है। दर्शनकेन्द्र की प्रेक्षा के द्वारा अन्तर्दृष्टि का विकास होता है। यह हमारी अतीन्द्रिय क्षमता है। इसके द्वारा वस्तु-धर्म और घटना के साथ साक्षात् सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। ज्योतिकेन्द्र की साधना के द्वारा क्रोध को उपशांत किया जा सकता है। शांतिकेन्द्र पर प्रेक्षा का प्रयोग कर हम भाव संस्थान को पवित्र बना सकते हैं। "लिम्बिक सिस्टम" मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण भाग है जहां भावनाएं पैदा होती हैं। शांतिकेन्द्र प्रेक्षा उसी स्थान को प्रभावित करने का प्रयोग है। प्राचीन भाषा में यह हृदय परिवर्तन का प्रयोग है । ज्ञानकेन्द्र की साधना के द्वारा अन्तर्ज्ञान को विकसित किया जा सकता है। यह अतीन्द्रिय चेतना का विकसित रूप है। अनुप्रेक्षा - जैन साधना पद्धति में अनुप्रेक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। साधना के क्षेत्र में पुराने का संशोधन और नए का निर्माण करना पहला उद्देश्य है। इस प्रक्रिया में प्रेक्षाध्यान साधना पद्धति में भी अनुप्रेक्षा की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। अनुप्रेक्षा का अर्थ है - यथार्थ तत्व का चिन्तन।' ध्यान से पहले या बाद में जब चित्त चंचल हो, इन्द्रियां बहिर्मुखी हों तो मूर्छा तोड़ने वाले विषयों का बार-बार चिन्तन अनुचिन्तन अनुप्रेक्षा है। इससे संवर की प्राप्ति होती है। 1. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 97 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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