Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 198
________________ 188 लेश्या और मनोविज्ञान चैतन्यकेन्द्र की चर्चा अवधिज्ञान से जुड़ी है। यद्यपि अवधिज्ञान की क्षमता सभी आत्मप्रदेशों में प्रकट होती है फिर भी शरीर का जो देशकरण बनता है, उसी के माध्यम से अवधिज्ञान प्रकट होता है। नन्दीसूत्र में भी सब अवयवों से जानने और किसी एक अवयव से जानने की चर्चा मिलती है।' चैतन्यकेन्द्र अनेक संस्थान वाले होते हैं। जैसे इन्द्रियों का संस्थान प्रतिनियत होता है वैसे चैतन्यकेन्द्रों का संस्थान प्रतिनियत नहीं होता किन्तु करणरूप में परिणत शरीर प्रदेश अनेक संस्थान वाले होते हैं। कुछ संस्थानों के नाम निर्देश मिलते हैं, जैसे - श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, मन्द्यावर्त आदि। धवलाकार ने आदिशब्द द्वारा अन्य अनेक शुभ संस्थानों का निर्देश किया है। आचार्य नेमीचन्द्र ने गुणप्रत्यय अवधिज्ञान को शंख आदि चिन्हों से उत्पन्न होने वाला बतलाया है । टीकाकार ने आदि शब्द की व्याख्या में पद्म, वज्र, स्वस्तिक, मत्स्य, कलश आदि शब्दों का निर्देश दिया है।' चैतन्यकेन्द्र शुभ-अशुभ दोनों होते हैं। श्री वीरसेनाचार्य का मत है कि शुभ संस्थान वाले चैतन्य केन्द्र नीचे के भाग में नहीं होते हैं। नाभि के नीचे होने वाले चैतन्य केन्द्रों के संस्थान अशुभ होते हैं, गिरगिट आदि अशुभ आकार वाले होते हैं। उनके अनुसार इस विषय का षट्खण्डागम में सूत्र नहीं है, पर यह विषय उन्हें गुरु परम्परा से मिला है। महत्त्वपूर्ण बात है शुभ-अशुभ चैतन्य केन्द्रों में होने वाले परिवर्तन की। सम्यक्त्व उपलब्ध होने पर नाभि के नीचे के अशुभ संस्थान मिट जाते हैं और नाभि के ऊपर शुभ संस्थान निर्मित हो जाते हैं। इसी प्रकार सम्यक् दृष्टि के मिथ्यात्व में चले जाने पर शुभ चैतन्य केन्द्र अशुभ में बदल जाते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि शरीर के कुछ भागों में चैतन्य सघन होता है और कुछ भागों में विरल । अतीन्द्रियज्ञान, शक्ति-विकास और आनन्द के अनुभूति के लिए उन सघन क्षेत्रों की सक्रियता हमारे लिए बहुत अर्थपूर्ण है। हमारे शरीर में अनेक शक्ति केन्द्र हैं। तंत्रशास्त्र और हठयोग में इन्हें चक्र कहते हैं। आधुनिक शरीर विज्ञान ने इनकी अभिव्यक्ति अन्तःस्रावी ग्रंथियों में मानी है। प्रेक्षाध्यान की पद्धति में प्रमुखतः तेरह चैतन्यकेन्द्रों की अवधारणा है। जिसे चित्र द्वारा देखा जा सकता है : 1. नन्दी सूत्र, 22; 3. वही, पुस्तक 93, पृ. 297; 5. पटखण्डागम, पुस्तक 13, पृ. 297, 98; 2. पट्खण्डागम, पुस्तक 13, पृ. 296 4. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा. 371 टीका 6. अपना दर्पण, अपना बिम्ब, पृ. 129 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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