Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 228
________________ 218 लेश्या और मनोविज्ञान तत्व। मनोभावों की विकृति के मूल कारणों की खोज में मनोविज्ञान अभी नहीं पहुंच सका है, क्योंकि निमित्तों की चिकित्सा होने के बाद भी यदि उपादान नहीं मिटाया गया तो दबा रोग पुनः विकराल रूप धारण कर सकता है। __ लेश्या चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में नाड़ी ग्रंथि संस्थान का उल्लेख इसलिए जरूरी माना गया कि उसके नियंत्रण एवं शोधन की बात भी भीतरी वृत्तियों के शोधन के लिए परस्पर सापेक्षता लिए हुए है। लेश्या एक भाव चिकित्सा __ मनोविज्ञान बीमारी का कारण मानसिक विकृतियों को स्वीकार करता है, क्योंकि बीमारी का असली कारण है भावों का अशुभ होना। प्रत्येक घटना के साथ मन जुड़ा रहता है। बिना मन जुड़े हममें न राग होता, न द्वेष । न सुख, न दुःख । न आनन्द, न पीड़ा। सच तो यह है कि रोग कभी कष्ट नहीं बनता, कष्ट देता है उसके साथ जुड़ा मन का संवेदन। इसलिए लेश्या चिकित्सा यानी भाव चिकित्सा को मनोवैज्ञानिक चिकित्सा माना जा सकता है। आगमों में भी मनोभावों को बीमारी का उत्पादक माना है। चार कषायों को आध्यात्मिक व्याधि कहा है। अठारह पाप, पांच आश्रव अशुभ लेश्या आदि सावद्ययोग बीमारी को निमंत्रण देते हैं । आगमकारों ने भी लेश्या विकृति का मुख्य हेतु आर्तध्यान, रौद्रध्यान को माना है । अत: मनोविज्ञान में प्रचलित चिकित्सा पद्धति में लेश्या की भूमिका अपना वैशिष्ट्य रखती है। जरूरत है विकृत मनोभावों को पकड़ने की, समझने की और निदान कर उसके कारण को मिटा देने की। विधेयात्मक व्यक्तित्व निर्माण के लिए लेश्या का धर्मध्यान शुक्लध्यान से जुड़ना जरूरी है। जब तक चेतना अशुभ से शुभ में प्रवेश नहीं करेगी, लेश्याएं विशुद्ध नहीं होंगी। लेश्या विशुद्धि के लिए विधायक व्यक्तित्व पर ध्यान केन्द्रित करना जरूरी है। जैन-दर्शन मानता है कि विधायक व्यक्तित्व के लिए शुभलेश्या में जीना जरूरी है, क्योंकि बुरे कर्म, बुरे विचार, बुरे चिन्तन जीवन को बुरा बना देते हैं । ऐसे क्षणों में कर्मबन्ध की परम्परा और अधिक दीर्घ हो जाती है। प्राणी मूर्छा में डूबा रहता है। शुभ चिन्तन और शुभ भावों से और शुभ अध्यवसायों से पवित्रता आती है। कर्मबन्धन ढीले पड़ते हैं । आश्रव रुकता है। संवर और निर्जरा की प्रक्रिया गतिशील रहती है। आत्मशोधन जरूरी लेश्या मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया नहीं, आत्म-शोधन की प्रक्रिया है। मनोविज्ञान में मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया एक मौलिक मनोवृत्ति के मार्ग को बदलने में अवश्य सफल हुई है। मनोविज्ञान के अनुसार जब व्यक्ति में काम की मनोवृत्ति उदात्त होती है, तब वह कला, संगीत, सौन्दर्य आदि अनेक विशिष्ट अभिव्यक्तियों में बदल जाती है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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