Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 230
________________ 220 लेश्या और मनोविज्ञान की दृष्टि से, लेश्या सिद्धान्त की दृष्टि से तथा शरीर शास्त्र की दृष्टि से बुरे संस्कारों के उत्पत्ति स्थानों में विचित्र साम्यता देखी जा सकती है। लेश्या आदरणीय तत्त्व नहीं, क्योंकि लेश्यातीत होने पर ही जीव कर्ममुक्त होता है। उत्तराध्ययन में स्पष्टतः साधक को आदेश दिया गया कि वह अप्रशस्त लेश्या का त्याग करके प्रशस्त लेश्या में जीने का प्रयत्न करें। सूत्र की गाथा अहिट्ठिए - अधितिष्ठेत - क्रिया पद आत्मा की स्वतंत्रता का सूचक कहा जा सकता है। आत्मा का लेश्या में सदा जीना उसकी अनिवार्यता नहीं, स्वयं द्वारा स्वयं के पराक्रम से उस पर अधिकार पाया जा सकता है । तात्पर्य यह है कि अप्रशस्त लेश्याओं का त्याग कर प्रशस्त लेश्या को स्वीकार करने का प्रयास आत्म-विकास का प्रयास है। व्यक्तित्व-बदलाव संभव __लेश्या-ध्यान का आधार प्रज्ञापना सूत्र में प्रतिपादित लेश्या परिवर्तन का सिद्धान्त है। ध्यान द्वारा लेश्या बदली जा सकती है। कृष्णलेश्या शुक्ललेश्या में बदल सकती है और शुक्ललेश्या की परिणति कृष्णलेश्या के रूप में हो सकती है। लेश्या द्वारा यदि व्यक्तित्व परिवर्तन संभव न होता तो कहा जा सकता है कि सम्यक्त्वी व्रती नहीं बन सकता, व्रती साधु नहीं बन सकता, साधु वीतरागता तक नहीं पहुंच सकता। लेश्या परिवर्तन का सिद्धान्त रूपान्तरण का मूल स्रोत है। यद्यपि यह एकान्ततः नियम नहीं है कि कृष्णलेश्या वाला जीव नीललेश्या को प्राप्त कर नीललेश्या में ही जाएगा, वह क्रमशः सभी लेश्याओं में आरोह-अवरोह कर सकता है। इसी तरह कृष्णलेशी जीव सीधा शुक्ललेश्या में भी पहुंच सकता है। अन्तर्मुहूर्त में लेश्या परिवर्तन की बात साधना के क्षेत्र में आस्था और विश्वास का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। देवता और नारकी को छोड़कर सामान्यतः सभी जीवों में लेश्या परिणाम अन्तर्मुहूर्त में परस्पर परिणत होते रहते हैं। यानी कोई भी व्यक्ति सदा एक भाव में नहीं रह सकता। बदलती भाव पर्यायें विभिन्न मनोदशाएं रचती रहती हैं। अत: व्यक्ति के भीतर दृढ़ संकल्प जाग जाए तो शुभलेश्याओं में उसका प्रवेश असम्भव नहीं है। विचारणीय बिन्दु है कि ध्यान के साथ क्या लेश्या का सीधा संबंध है? ध्यान के साथ लेश्या के परिणमन पर क्या प्रभाव पड़ता है? ध्यान द्वारा लेश्या द्रव्यों का ग्रहण नियंत्रित किया जा सकता है? आगमों में उल्लेख मिलता है कि निर्वाण के समय केवली के मन और वचन योगों का सम्पूर्ण निरोध होता है। उस समय उसके शुक्लध्यान का तीसरा भेद 'सुहुम किरिए अनियट्ठी' सूक्ष्मकायिकीक्रिया-उच्छवासादि के रूप में होती है। इससे ज्ञात होता है कि लेश्या और ध्यान का गहरा संबंध है। ध्यान से कषाय उपशमित होती हैं। योगों की चंचलता में कमी आती है। ऐसे क्षणों में पूर्व गृहीत अप्रशस्त पुद्गलों का प्रशस्त होना स्वाभाविक है। अत: यह भी सही है कि Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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