Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 229
________________ उपसंहार आत्मशोधन में मनोवृत्तियों की दिशा नहीं बदलती, मूलतः स्वभाव ही बदलता है। कर्म के विपाक को इतना मन्द कर दिया जाता है कि आदतें अपना प्रभाव खो चुकती हैं। नियंत्रण और शोधन के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आया कि व्यक्तित्व बदलाव अथवा आत्म नियंत्रण स्नायविक स्तर पर होता है परन्तु आत्मशोधन लेश्या के स्तर पर होता है। 219 चित्त, मन, इन्द्रियां ये सब स्थूल शरीर से संबद्ध हैं। पर लेश्या स्थूल शरीर से जुड़ी हुई नहीं है, क्योंकि आगमकार कहते हैं कि लेश्या उन प्राणियों में भी होती है जिनके मस्तिष्क, सुषुम्ना नाड़ी संस्थान होता है और उनमें भी जिनमें केवल स्पर्शन इन्द्रिय का अस्तित्व है । लेश्या सूक्ष्म स्तर पर क्रियाशील है, अतः जहां ज्ञानवाही एवं क्रियावाही स्नायु शरीर की सारी क्रियाओं का सम्पादन करती है, वहां लेश्या के लिए स्नायुतंत्र की अपेक्षा नहीं रहती । उसके साथ भावसंस्थान जुड़ा रहता है। अतः शोधन भीतरी स्तर पर जरूरी है। लेश्या रसायन परिवर्तन की विधि है। आज मानसिक चिकित्सा में सबसे बड़ा सूत्र माना जाता है पुरानी ग्रंथियों को खोलना। लेश्या के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है अशुभ लेश्या से प्रतिक्रमण कर व्यक्ति भीतरी चेतना को निःशल्य बना लेता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसी प्रक्रिया को मनोविश्लेषण कहा गया है। निःशल्य बनने की प्रक्रिया में ध्यान एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम है 1 इस ग्रन्थ में लेश्या द्वारा व्यक्तित्व बदलाव की प्रक्रिया में सलक्ष्य प्रेक्षाध्यान की चर्चा की गई है। लेश्या विशुद्धि में रंगों का यानी लेश्या का ध्यान महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्रेक्षाध्यान पद्धति आगमिक एवं वैज्ञानिक पद्धति है। इसमें चैतन्य केन्द्रों पर रंगों का ध्यान विशेष उद्देश्य के साथ जुड़ा हुआ है। चैतन्यकेन्द्र शक्ति स्त्रोत है। आत्मा पूरे शरीर में व्याप्त है। वह समूचे शरीर द्वारा कर्मपुद्गलों का ग्रहण करती है। भगवती सूत्र कहता है - सव्वेणं सव्वे । चेतना के असंख्यात प्रदेश है। समूचे शरीर द्वारा देखा, सुना, सूंघा, चखा, छुआ जा सकता है। जैन दर्शन में संभिन्न श्रोतोपलब्धि का उल्लेख मिलता है । जिस व्यक्ति के भीतर यह लब्धि जाग जाती है उसकी चेतना इतनी विकसित होती है कि पूरा शरीर कान, आंख, नाक, जीभ और स्पर्शन इन्द्रिय का कार्य कर सकता है। स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर का संवादी है। भीतरी क्षमताओं की अभिव्यक्ति के लिए स्थूल शरीर माध्यम बनता है । उसमें शक्ति और चैतन्य की अभिव्यक्ति के केन्द्र हैं। इन्हें चैतन्य केन्द्र कहा जा सकता है। साधना द्वारा जब ये सुप्त केन्द्र जागते हैं तब आगमिक भाषा में इन्हें करण कहते हैं। विज्ञान की भाषा में विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र और तंत्र शास्त्र तथा हठयोग में इन्हीं के आधार पर चक्रों का सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ है। शरीर विज्ञान में अन्तःस्रावी ग्रंथियों का उल्लेख है जो हमारे भीतरी रसायनों यानी मनोभावों को शरीर के स्तर पर अभिव्यक्त करती है। उल्लेखनीय बात है कि योगशास्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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