Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 224
________________ लेश्या और मनोविज्ञान चित्त और मन में तत्त्वतः भेद है। मन स्थायी तत्त्व नहीं है। वह चेतना द्वारा सक्रिय है । शरीर की तरह भाषा और मन का अस्तित्व प्रतिक्षण नहीं रहता । भासिज्जमाणी भाषा • जब बोलते हैं, तब भाषा होती है, इसी तरह मणिज्जमाणे मणे मनन काल में मन होता है । 214 स्मृति, कल्पना, मनन, ईहा, अपोह, मार्गणा, चिन्ता और विमर्श ये सब मन के कार्य हैं। मानसिक कार्य के साथ चित्त का सहयोग बना रहता है। यद्यपि मनोविज्ञान ने चित्त के अर्थ में मुख्यतः मन का ही प्रयोग किया है, पर आत्मविज्ञान के सन्दर्भ में चित्त और मन को भिन्न माने बिना चेतना के सूक्ष्म स्तरों की व्याख्या संभव नहीं होती । चित्त का अर्थ है - स्थूल शरीर के साथ काम करने वाली चेतना । मन का अर्थ है उस चित्त द्वारा काम कराने के लिए प्रयुक्त तंत्र । मन क्रिया तंत्र है और चित्त चैतन्य तंत्र । लेश्या के सन्दर्भ में चित्त की बात विशेष महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि सम्पूर्ण भावों का संवाहक चित्त है। रंगों की मनोवैज्ञानिक अवधारणा जैन साहित्य में लेश्या रंगों की भाषा में व्याख्यायित है । यद्यपि लेश्या को प्रत्यक्षतः देखा नहीं जा सकता, क्योंकि यह आंखों की शक्ति से जुड़ा प्रश्न है । हम जो भी देखते, सुनते, चखते, छूते हैं, सब कुछ स्थूल होता है। जबकि लेश्या सूक्ष्म रंगों की अभिव्यक्ति है। सूक्ष्म यंत्रों अथवा अतीन्द्रिय चेतना के बिना लेश्या के सूक्ष्म रंगों को पकड़ना संभव नहीं है। जैन- दर्शन के अनुसार पदार्थ में पांच रंग होते हैं - काला, नीला, लाल, पीला और सफेद । हम भौंरे को काला कहते हैं, पर उसमें पांचों रंग होते हैं । प्रत्येक रंग के साथ अपेक्षावाद जुड़ा है। रंगों की गुणात्मकता एवं प्रभावकता भौतिक दृष्टि से और आध्यात्मिक दृष्टि से भिन्न-भिन्न अर्थ रखती है। कौन-सा रंग व्यक्तित्व पर कैसा प्रभाव डालता है, यह निर्भर करता है रंग की गुणात्मकता पर और व्यक्ति के स्वभाव पर । एक ही रंग भिन्न-भिन्न रुचियों वाले लोगों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करते हुए देखा गया है। भौतिक रंगों की गुणात्मकता और प्रभावकता की तुलना में लेश्या के रंगों का अपना वैशिष्ट्य है। वे दृश्य रंगों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म हैं इसलिए चेतना को अधिक प्रभावित करते हैं । श्या के साथ जुड़ा रंगवाद पुद्गल सिद्धान्त पर आधृत है। प्राणी प्रतिक्षण कर्म पुद्गलों को ग्रहण और विर्सजन करता है। गृहीत पुद्गल वर्णवान होते हैं इसलिए वे भावों के साथ जुड़कर अपनी प्रभावकता स्थापित करते हैं। रंगों के आधार पर अच्छे-बुरे भावों का निर्माण होता है और इसी तरह भावों की गुणात्मकता पर अच्छे-बुरे रंगों का संग्रहण होता है। इस प्रकार भाव चेतना और पुद्गल में निरन्तर अन्तः क्रिया होती रहती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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