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उपसंहार
उत्पन्न हुई, जिज्ञासा लेकर साधु के पास आया, प्रश्न पूछा - धर्म स्वीकार किया, धर्म क्रिया की इन सभी क्रियाओं में क्रमशः निर्जरा असंख्येय गुणा अधिक होती है ।
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जितने समय में अयोगी केवली जितने कर्म क्षीण करता है उतने कर्म सयोगी केवली संख्येयगुण काल अधिक में क्षीण करता है। निर्जरा की असंख्येय-गुणश्रेणी में निश्चित रूप से अन्य सहयोगी कारणों के साथ लेश्या की विशुद्धि भी जरूरी है, क्योंकि बिना अध्यवसायों की उज्ज्वलता के और बिना लेश्या परिणामों के शुभ हुए निर्जरा संभव नहीं ।
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पुण्य-पाप व्यक्ति का अपना-अपना है। लेश्या के शुभ-अशुभ परिणामों का जिम्मेदार व्यक्ति स्वयं है । एक कृष्णलेशी जीव शुक्ललेशी जीव के गर्भ में उत्पन्न हो सकता है और शुक्ललेशी जीव कृष्णलेशी जीव के गर्भ में उत्पन्न हो सकता है। पर्यावरण का प्रभाव एकदूसरे पर अवश्य पड़ता है, मगर सुख-दुःख की फल प्राप्ति में मूल स्रोत व्यक्ति के अपने कृतकर्म संस्कार हैं 1
लेश्या के सन्दर्भ में भगवान् महावीर ने महत्वपूर्ण चर्चा की - ऋद्धि और वैभव की । ऋद्धि और वैभव के साथ दो दृष्टिकोण जुड़े हैं - 1. पदार्थ का वैभव 2. व्यक्ति के आचरण और भावों का वैभव। पदार्थ से बन्धे वैभव के साथ मूर्च्छा जुड़ी है, वहां सबकुछ होते हुए भी जीवन सुखी नहीं होता जबकि भीतर लेश्या विशुद्धि का वैभव सब अभावों के होते हुए भी आदमी को शांत-सुखी कर देता है ।
लेश्या के साथ सुख-दुःख की संवेदना का कालमान भी छोटा-बड़ा बन जाता है। अशुभलेश्या के परिणाम भोगते समय छोटा-सा काल व्यक्ति के लिए बड़ा महसूस होता है, जबकि शुभलेश्या के परिणाम भोगते समय दीर्घकाल भी अल्प-सा महसूस होता है। नारकी और देवता की लेश्या का कालमान लम्बा होता है, पर सहने की अनुभूति में बहुत बड़ा फर्क है । नारकी में असह्य वेदना होने से नारकीय जीवों को वह काल निर्धारित समय से बहुत ज्यादा लगता है जबकि देवताओं को असीम सुख उपलब्ध होने की वजह से उन्हें अपनी आयु का बड़ा काल भी छोटा-सा लगता है । प्रश्न समय का नहीं, सुख-दुःख के साथ जुड़ी संवेदना का है।
लम्बाई, चौड़ाई, वजन द्वारा वस्तु का मापन इस युग की वैज्ञानिक देन है पर लेश्या के साथ जुड़ी समय, वजन, लम्बाई, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण की बात भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । इस सन्दर्भ में अगुरुलघु का सिद्धान्त जैन-दर्शन का मौलिक अवदान है 1
स्पर्श, रस, गन्ध, , वर्ण सिर्फ पदार्थ का ही नहीं, प्राणी के भावों का भी होता है, क्योंकि भाव पुद्गल निरपेक्ष नहीं है । अठारह पापों के विषय में भगवान् ने गौतम से कहा - हिंसा, असत्य, चौर्य, परिग्रह, वासना, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अठारह पापरूप भावों का भी अपना वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श होता है। अतः वर्ण के साथ जुड़ा भाव जगत् हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व की आधारशिला बना हुआ
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