Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 219
________________ उपसंहार जैन दर्शन का आगम साहित्य ज्ञान का विशाल एवं समृद्ध भण्डार है । वह गूढ़ तत्त्वों का विश्लेषण करता है। लेश्या के सन्दर्भ में भी कहा जा सकता है कि आगम साहित्य में इस पर विस्तार से गहन चर्चा हुई है। यद्यपि किसी एक आगम में लेश्या का क्रमबद्ध उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है और इसी क्रमबद्धता के अभाव में विषय को स्पष्टता से समझने में कहीं-कहीं कठिनाई भी अनुभव होती है फिर भी यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है। कि जैन-दर्शन में लेश्या का सांगोपांग सूक्ष्म विश्लेषण है। लेश्या सिद्धान्त ने जीवन के स्थूल और सूक्ष्म सभी पहलुओं को छुआ है। यदि अनेकान्त दृष्टि से किए गए उसके विश्लेषण को व्यवहार में लाया जाए तो अनेक समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। प्रस्तुत शोध निबन्ध में लेश्या के मनोवैज्ञानिक अध्ययन की प्रस्तुति का एक लघु प्रयत्न किया गया है। आगम साहित्य के आधार पर लेश्या के बिखरे सूत्रों का समाकलन आधुनिक सन्दर्भों में जीवन की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करने में सक्षम है। इस शोध में सैद्धान्तिक एवं मनोवैज्ञानिक अध्ययन की समन्विति ने इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि सिद्धान्त केवल सिद्धान्त तक सीमित न रहे, वह जीवन के प्रायोगिक दर्शन के साथ भी समानान्तर गति से आगे बढ़े। जैन साहित्य में लेश्या का संप्रत्यय जीव और पुद्गल के संबंधों की खोज करते समय विश्लेषित हुआ । जीव और पुद्गल दोनों परस्पर एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभावित करने वाली अनेक पौद्गलिक संरचनाओं में एक विशिष्ट पुद्गल संरचना है। लेश्या । - जैनाचार्यों ने लेश्या की जो परिभाषा की, उसमें निम्नांकित दृष्टिकोण मुख्य रहे हैं। लेश्या योग परिणाम लेश्या कषायोदयरंजित योग प्रवृत्ति है । लेश्या कर्मनिष्यन्द है । लेश्या कार्मण शरीर की भांति कर्मवर्गणा निष्पन्न कर्मद्रव्य है । ० ० ० ० इन शास्त्रीय परिभाषाओं के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि लेश्या का जीव और कर्म से गहरा संबंध है। लेश्या के मुख्य दो भेद हैं द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या पुद्गलात्मक होती है और भाव लेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। मन के परिणाम शुद्ध-अशुद्ध दोनों होते हैं और उनके निमित्त भी Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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