Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 220
________________ लेश्या और मनोविज्ञान शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। निमित्त को द्रव्य लेश्या और मन के परिणाम को भाव लेश्या कहा गया है। इसीलिए लेश्या के भी दो कारण बतलाए हैं - निमित्त कारण और उपादान कारण। उपादान कारण है कषाय की तीव्रता और मन्दता । निमित्त कारण है। पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण | 210 पुद्गल परमाणु में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सभी होते हैं । लेश्या के प्रतिपादन में मुख्यता वर्ण की है। चूंकि वर्ण/रंग का मन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। रंगों की विविधता के आधार पर मनुष्य के भाव, , विचार और कर्म सम्पादित होते हैं। इसलिए रंग के आधार पर लेश्या के छह प्रकार बतलाए गए हैं 1 1 लेश्या आचरण और व्यवहार की नियामिका है। आचरण पक्ष जुड़ा है कषाय से और व्यवहार पक्ष जुड़ा है योग से योग यानी मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति । कषाय यानी आत्मा के निषेधात्मक भाव । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि योग लेश्या की भूमिका बनाता है और कषाय उस पर रंग चढ़ाता है । कषाय योग और लेश्या कषाय, योग और लेश्या के पारस्परिक संबंध पर जैन साहित्य में विस्तृत चर्चा है। कषाय और लेश्या का अविनाभावी संबंध नहीं है, क्योंकि कषाय के अभाव में भी जीव के लेश्या होती है। जहां तक योग और लेश्या का संबंध है, इस सन्दर्भ में जैनाचार्यों ने भिन्नभिन्न अभिमत प्रस्तुत किए। उन मतों की समीक्षा प्रस्तुत ग्रन्थ के 'लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष अध्याय' में की जा चुकी है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इनमें परिस्पन्दन और परिणमन जितना अन्तर है । द्रव्यमन, द्रव्यभाषा और द्रव्यकाय के पुद्गलों का परिस्पन्दन द्रव्ययोग है और इन पौद्गलिक द्रव्यों में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण का परिणमन द्रव्यलेश्या है । द्रव्ययोग के परिस्पन्दन के सहकार से आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन भावयोग है और द्रव्यलेश्या के सहकार से आत्मभाव का परिणमन भावलेश्या है । अतः योग को परिस्पन्दन एवं लेश्या को परिणमन कहा जा सकता है। — लेश्या के असंख्यात स्थान बतलाए गए हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक लेश्या के होते हुए भी उसकी परिणति में बहुत तारतम्यता हो सकती है। शुक्ललेश्या चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव में भी होती है और केवली में भी होती है पर भावों की पवित्रता में अन्तर होने से दोनों की संरचना में भी बड़ा अन्तर होता है । लेश्या के सन्दर्भ में भावों की तारतम्यता सिद्धान्त इस बात की सूचना देता है कि कोई भी दो प्राणी एक जैसे नहीं हो सकते। एक ही लेश्या के प्राणी में भावों की तारतम्यता संभव है। आत्मविशुद्धि के सन्दर्भ में भी भावों की तारतम्यता मुख्य भूमिका निभाती है । सम्यक्त्व प्राप्ति के समय असंख्यगुण श्रेणी की बात व्यक्ति से जुड़ी है। एक व्यक्ति में धर्म जिज्ञासा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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