Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 197
________________ जैन साधना पद्धति में ध्यान 187 आचार्य हरिभद्रसूरि, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि ने योग ग्रंथों में यद्यपि हठयोग का समावेश किया पर उन्होंने जैन साहित्य में उपलब्ध चक्रों की ओर ध्यान नहीं दिया। देशावधि चक्र-सिद्धान्त का मौलिक आधार है। नन्दीसूत्र में देशावधि और सर्वावधि का उल्लेख नहीं, फिर भी उनकी व्याख्या बहुत विस्तार से उपलब्ध होती है। हमारे पूरे शरीर में चैतन्यकेन्द्र अवस्थित हैं। जब चैतन्यकेन्द्र जागने लगते हैं, तब उसी में से अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां बाहर निकलने लगती हैं। पूरे शरीर को यदि जगा लिया जाए तो पूरे शरीर से अतीन्द्रिय ज्ञान व्यक्त होने लगता है। किसी एक या अनेक चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता से होने वाले अवधिज्ञान सर्वावधि है। इस सन्दर्भ में दिगम्बर साहित्य ने भी करण की व्याख्या देकर चैतन्यकेन्द्रों की स्पष्टता प्रस्तुत की है। चैतन्यकेन्द्र का अर्थ है - शरीर के कुछ हिस्सों को स्फटिक की तरह निर्मल बना लेना। दूसरा अर्थ है - करण। शरीर को पूरा करण बना लेना। उससे काम लेना। जैन-दर्शन में इन्द्रियों को भी करण कहा गया है, क्योंकि हम उनके द्वारा देखते हैं, सूंघते हैं , स्वाद लेते और स्पर्शबोध करते हैं। ये अंग विशिष्ट काम देते हैं, इसलिये इन्हें करण कहते हैं । शरीर का भी एक नाम करण है। __ भगवती सूत्र के अनुसार प्राणी के पास चार करण होते हैं, इसकी चर्चा है - मनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण। अशुभकरण से दु:ख का और शुभकरण से सुख का संवेदन होता है। इसका वाच्यार्थ यह हुआ कि हम समूचे शरीर को करण बना सकते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने योग साहित्य में इसका विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। जैन आगम में उल्लिखित संभिन्नस्त्रोतोपलब्धि का अर्थ भी यही है कि पूरा शरीर करण बन कर ज्ञेय को एकसाथ जान सकता है। आंखें बोल सकती है, कान देख सकता है। एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों के विषयों का बोध हो सकता है। __तंत्रशास्त्र, योगशास्त्र और हठयोग में चक्रों के लिए कमल की प्रकल्पना की है। शरीर शास्त्रीय भाषा में कहा जा सकता है कि शरीर में कई अन्तःस्रावी ग्रंथियां हैं। आज की भाषा में जहां-जहां विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड) है, वहां-वहां चैतन्य केन्द्र हैं। अलग-अलग दर्शनों में इनकी संख्या भी अलग-अलग निर्धारित है। आयुर्वेद की भाषा में चैतन्यकेन्द्रों को मर्मस्थान कहा गया है। आयुर्वेदाचार्यों ने इन मर्मस्थानों की संख्या 107 बतलाई हैं। इन मर्मस्थानों में प्राण केन्द्रीभूत होता है। चेतना विशेष प्रकार से अभिव्यक्त होती है। एक्यूपंक्चर की चिकित्सा में हमारे शरीर में ऐसे 700 से अधिक केन्द्र खोज निकाले हैं, जिन्हें सुई द्वारा उत्तेजित करने पर अनेक प्रकार के रोगों की चिकित्सा की जाती है। एक्यूपंक्चर एवं एक्यूप्रेशर में माना गया है कि जो केन्द्र हमारे मस्तिष्क में है, वे हमारे पैर के अंगूठे में भी है। ये केन्द्र एक-दूसरे से संबद्ध हैं। 1. भगवती सूत्र, 6/5, 14 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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