Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 202
________________ 192 लेश्या और मनोविज्ञान अनित्य अनुप्रेक्षा ____ अनित्य अनुप्रेक्षा का चिन्तन व्यक्ति को सांसारिक संबंधों की क्षणभंगुरता का अनुचिन्तन करवा कर, संयोग-वियोग की शाश्वतता दिखलाकर उसे अनासक्ति की ओर प्रेरित करता है। शरीर, यौवन, धन-सम्पदा, परिवार सब कुछ अनित्य है। इसे नित्य मानकर प्राणी मूढ़ न बनें, क्योंकि जन्म-मृत्यु के साथ, यौवन बुढ़ापे के साथ और सम्पत्ति विनाश के साथ अनुबद्ध है। अनित्यता का बोध होने पर व्यक्ति घटना को जानता है, भोगता नहीं। घटना को न भोगने वाला अपने जीवन में सुख, आनन्द उपलब्ध करता है । अनित्यता का बोध अहं, भ्रम, मूर्छा को तोड़ता है। अशरण अनुप्रेक्षा ___ अशरण अनुप्रेक्षा में साधक सोचता है - जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, व्याधि, प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग, अभिलषित वस्तु का प्राप्त न होना, दारिद्र्य, दौर्भाग्य, राग-द्वेष आदि से पीड़ित चित्त, अनेक कारणों से उत्पन्न दुःखों से आक्रान्त प्राणी का इस संसार में कोई शरणभूत सहायक नहीं बनता। अनुप्रेक्षा का सूत्र है कि कोई भी इस जगत् में तुम्हारा शरण नहीं और न ही तुम किसी के शरण बन सकते हो। ____ आदमी की बाह्य जगत के प्रति मूर्छा तब तक नहीं टूटती, जब तक यह बात समझ में नहीं आ जाए कि मेरा कोई शरण नहीं। आदमी, धन, परिवार, पत्नी, पुत्र, मित्र, मकान आदि को अपना समझता है, क्योंकि उसे यह विश्वास है कि अन्त में ये ही मेरे काम में आने वाले हैं, बस यही भ्रम प्राणी को मूर्छा में, परिग्रह में डालता है। जहां से कर्म संस्कारों की परम्परा शुरू होती है । अशरण अनुप्रेक्षा में चिन्तन का मुख्य तत्त्व है - अपने अस्तित्व की पहचान। संसार अनुप्रेक्षा __ कोई भी द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से मुक्त नहीं। जिसका अस्तित्व है, वह उत्पन्न होता है, नष्ट होता है। उत्पाद और विनाश का क्रम चलता रहता है। इसी क्रम का नाम संसार है। आचारांग में संसार का कारण मोह बताया है। "मोहेण गब्भं मरणाति एति" प्राणी मोह के कारण जन्म-मरण करता है। संसार भावना में साधक चिन्तन करता है कि इस संसार परम्परा में मैं अनन्त-अनन्त रूपों में जुड़ा हूं। इस अनादि संसार समन्दर में अनन्त (पुद्गलापरावर्तन) काल तक अनन्त बार जन्म-मरण करता रहा हूं। विविध योनियों में विविध कष्टों को सहा है। कभी मैं 1. कार्तिकेयानुप्रेक्षा 5 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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