Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 190
________________ लेश्या और मनोविज्ञान जा सकता है। मशीनों के द्वारा जानने के बाद स्वतः सूचन प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति वांछनीय शारीरिक अवस्थाओं को प्राप्त कर तनाव मुक्त हो सकता है। 180 मनोवैज्ञानिक आज इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि स्वतः संचालित नाड़ी तंत्र की क्रियाएं - हृदय गति, रक्तचाप आदि को इन दो विधियों के प्रयोग द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है। किन्तु तनावजनित मानसिक बीमारियों के उपचार में बायोफीडबैक एवं शिथिलीकरण प्रशिक्षण की सफलता के संबंध में मनोवैज्ञानिक आज तक निश्चित निर्णय पर नहीं पहुंच पाए हैं । मनोविज्ञान में सम्मोहन ( हिप्नोटिज्म) प्रक्रिया बहुत प्राचीन काल से प्रचलित है। इस प्रक्रिया में अन्य व्यक्ति के द्वारा सूचन के माध्यम से व्यक्ति को सम्मूढ़ बनाकर परिवर्तन की चेष्टा की जाती है। इसमें सम्मोहित करने वालों की शक्तियां बहुत क्षीण होती हैं । शिथिलीकरण की प्रक्रिया में या कायोत्सर्ग में स्वतः सूचन का प्रयोग किया जाता है। स्वतः सूचन या स्व-सम्मोहन को एक विशेष प्रकार की सुझाव चिकित्सा कह सकते हैं जिसमें व्यक्ति स्वयं अपने सुझावों के द्वारा अपनी चिकित्सा करता है । अन्तर्यात्रा - प्रेक्षाध्यान का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है अन्तर्यात्रा। इसका प्रमुख उद्देश्य है। अन्तर्मुखता का विकास। चित्त द्वारा प्राणधारा का ऊर्ध्वारोहण । मानसिक शक्तियों का संतुलन । अन्तर्यात्रा का सीधा संबंध है सुषुम्ना से, जो केन्द्रीय नाड़ी संस्थान का हिस्सा है। इसके दोनों ओर अनुकम्पी (Sympathetic) और परानुकम्पी (Para- Sympathetic) स्वत: संचालित नाड़ी संस्थान है। इसे योगभाषा में इड़ा, पिंगला अथवा सूर्यनाड़ी, चन्द्रनाड़ी कहा जा सकता है। केन्द्रीय नाड़ी संस्थान के मुख्य दो भाग हैं। मस्तिष्क और सुषुम्ना जो ज्ञानवाही तथा क्रियावाही तंतुओं का केन्द्र स्थान है । मस्तिष्क चेतना का विकिरण करता है और पृष्ठरज्जु का निचला हिस्सा-शक्ति का विकिरण करता है। एक शक्ति के संग्रह का, दूसरा चेतना के संग्रह का अमोघ साधन है । प्रेक्षाध्यान में इन दोनों केन्द्रों को ज्ञानकेन्द्र और शक्तिकेन्द्र कहा जाता है । 1 हमारे जीवन में चेतना और शक्ति दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। इनका सीधा संबंध ज्ञानकेन्द्रमस्तिष्क और शक्ति केन्द्र (रीढ़ की हड्डी का अन्तिम छोर ) से है । अन्तर्यात्रा में चित्त को सुषुम्ना के मार्ग से होते हुए शक्ति केन्द्र से ज्ञानकेन्द्र तक ले जाना होता है । चित्तं की इस यात्रा को श्वास के साथ जोड़कर भी किया जाता है। श्वास लेते समय चित्त को ऊपर से नीचे ले जाते हैं और श्वास छोड़ते समय चित्त को नीचे से ऊपर ले जाते हैं। प्रारम्भ में यह अभ्यास प्रयत्नपूर्वक संकल्प के साथ किया जाता है। इस प्रयोग में ऊर्जा का दिशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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