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लेश्या और मनोविज्ञान
किया जाने वाला अभिनव कायोत्सर्ग कहलाता है। श्रमण महावीर, मुनि बाहुबलि तथा गजसुकुमाल आदि मुनियों ने आत्म प्राप्ति के लिए इसी कायोत्सर्ग को साधा था ।
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1. द्रव्य
आचार्य जिनदास गणी महत्तर ने कायोत्सर्ग के दो प्रकार बतलाये हैं कायोत्सर्ग 2. भाव कायोत्सर्ग । शारीरिक चंचलता और ममता का परित्याग कर जिनमुद्रा में स्थिर होना कायोत्सर्ग कहलाता है। इसे द्रव्य कायोत्सर्ग भी कहते हैं। इसके बाद साधक धर्मध्यान और शुक्लध्यान में रमण करता है । मन को पवित्र विचार और उच्च संकल्प से बांधता है जिससे उसे शारीरिक वेदना नहीं होती। वह शरीर में रहता हुआ भी शरीर से भिन्न चैतन्य का अनुभव करता है, यह भाव कायोत्सर्ग का प्राण है।
द्रव्य कायोत्सर्ग भाव कायोत्सर्ग तक पहुंचने की पूर्व भूमिका है। द्रव्य कायोत्सर्ग में बाह्य वस्तुओं का विसर्जन किया जाता है, जैसे शरीर, उपधि, गण, भक्तपान । भाव कायोत्सर्ग में तीन बातें आवश्यक हैं कषाय- व्युत्सर्ग, संसार-व्युत्सर्ग तथा कर्म-व्युत्सर्ग ।
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कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है आत्मा और शरीर का भेदज्ञान । काया के साथ आत्मा का जो संयोग है, उसका मूल है प्रवृत्ति । जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात् आत्मा के सान्निध्य रहना चाहता है वह स्थान (आसन) मौन और ध्यान के द्वारा कायगुप्ति, वाग्गुप्ति और मनोगुप्ति करता है। कायोत्सर्ग द्वारा मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियां निवृत्त होती हैं । कायगुप्ति से संवर या पापाश्रवों का निरोध होता है । '
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तनाव का मूल स्रोत है - प्रवृत्तिप्रधान जीवन । प्रवृत्ति से संस्कार और संस्कार से पुन: प्रवृत्ति का पुनरावर्तन - यह चक्र सदा तनावों को उत्पन्न करता है। संस्कारों का अन्त अकर्म द्वारा सम्भव है । कर्म से कर्म को नहीं मिला सकते। प्रवृत्ति के अभाव में उदय में आया संस्कार जब समता पूर्वक सह लिया जाता है तब संस्कार की परम्परा शिथिल पड़ने लगती है । इसीलिए कायोत्सर्ग साधना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण तत्व माना गया है।
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कायोत्सर्ग से अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्त योग्य कर्मों का विशोधन होता है । साधक भारहीन होकर हृदय की स्वस्थता प्राप्त करता है । वह प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाता है। इन सारी दृष्टियों को ध्यान में रखकर कायोत्सर्ग को सब दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है।
कायोत्सर्ग की अनेक उपलब्धियां हैं
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2. परमलाघव
3. मतिजाड्यशुद्धि
1. उत्तराध्ययन 29/55
1. देहजाड्यशुद्धि - श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट हो
जाती है ।
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शरीर बहुत हल्का हो जाता है ।
जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट हो जाती है।
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