________________
जैन साधना पद्धति में ध्यान
धर्म का अस्तित्व बिना ध्यान सम्भव नहीं । धर्म के क्षेत्र में ध्यान का वही स्थान है जो शरीर में मस्तिष्क का है। मनुष्य का शरीर काट देने पर उसकी मृत्यु हो जाती है, वृक्ष के मूल को उखाड़ देने पर वह धराशायी हो जाता है, वैसे ही ध्यान को छोड़ देने पर धर्म निर्जीव हो जाता है ।'
जैन साहित्य में ध्यान साधना पद्धति की सर्वांगीण व्याख्या उपलब्ध है। ध्यान की परिभाषा करते हुए लिखा है कि ध्यान की दो अवस्थाएं हैं - अस्थिर और स्थिर । अस्थिर अवस्था को चित्त और स्थिर अवस्था को ध्यान कहते हैं ।
वस्तुत: मन की दो अवस्थायें हैं - चित्त और ध्यान । जब मन गुप्त, एकाग्र या निरुद्ध होता है तब उसकी संज्ञा ध्यान हो जाती है। भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता - ये सब चित्त की अवस्थाएं हैं।
167
चित्त को किसी एक विषय पर केन्द्रित करना ध्यान है। यद्यपि चित्त को किसी एक वस्तु अथवा बिन्दु पर केन्द्रित करना कठिन है, क्योंकि यह किसी भी विषय पर अन्तर्मुहूर्त्त से ज्यादा टिक नहीं पाता तथा एक मुहूर्त्त ध्यान व्यतीत हो जाने पर यह स्थिर नहीं रहता । यदि रह जाए तो वह चिन्तन कहलाएगा या आलम्बन की भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलायेगा ।
ध्यान शब्द ' ध्यै' चिन्तायाम् धातु से निष्पन्न होता है। शब्द की उत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ चिन्तन होता है किन्तु प्रवृत्तिलभ्य अर्थ उससे भिन्न है। ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं । तत्त्वार्थ सूत्र में एकाग्र चिन्ता तथा शरीर, मन और वाणी के निरोध को ध्यान कहा है । इससे यह ज्ञात होता है कि जैन परम्परा में ध्यान का संबंध केवल मन से ही नहीं माना गया। वह मन, वाणी और शरीर इन तीनों से संबंधित था। इस अभिमत के आधार पर उसकी पूर्ण परिभाषा इस प्रकार बनती है - शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति तथा उनकी निष्प्रकम्प दशा ध्यान है।
भद्रबाहु के सामने प्रश्न उपस्थित हुआ- यदि ध्यान का अर्थ मानसिक एकाग्रता है तो इसकी संगति जैन परम्परा सम्मत उस प्राचीन अर्थ से शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति या निरेजनदशा ध्यान के साथ कैसे होगी ? आचार्य भद्रबाहु ने उत्तर दिया शरीर में वात, पित्त और कफ ये तीन धातुएं होती हैं। उनमें से जो प्रचुर होता है, उसी का व्यपदेश किया जाता है - जैसे वायु कुपित है। जहां वायु कुपित है, ऐसा निर्देश किया जाता है, उसका अर्थ यह नहीं है कि वहां पित्त और श्लेष्म नहीं है । इसी प्रकार मन की एकाग्रता ध्यान है, ऐसा कहना परिभाषा की प्रधानता की दृष्टि से है ।'
-
Jain Education International
1. इसि भासियाई, 22/14; 2. झाणज्झयणं, 2; 3. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा 1463 4. तत्वार्थ सूत्र, 9/27; 5. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा 1467-78; 6. वही, 1468-69
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org