Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 183
________________ जैन साधना पद्धति में ध्यान काल ध्यान सार्वकालिक है । जब मन लग जाए, एकाग्रता उतर जाये तभी ध्यान का समय है। ध्यान शतक के अनुसार जब मन को समाधान मिले, वही समय ध्यान के लिये उपयुक्त है, उसके लिए दिन, रात्रि आदि किसी समय का नियम नहीं किया जा सकता है। - आसन - जिस आसन में ध्यान सहज लग जाए वही आसन उचित है । इस अभिम के अनुसार ध्यान खड़े, बैठे और सोये किया जा सकता है। समग्रदृष्टि से ध्यान की निम्न अपेक्षाएं हैं 1. बाधा रहित स्थान, 2. प्रसन्नकाल 3. सुखासन, 4. सम, सरल और तनावरहित शरीर, 5. दोनों होठ 'अधर' मिले हुए, 6. नीचे और ऊपर के दांतों में थोड़ा अन्तर, 7. दृष्टि नासाग्र पर टिकी हुई, 8. प्रसन्नमुख, 9. मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर, 10. मंद श्वास- निश्वास ।' आलम्बन ऊपर की चढ़ाई में जैसे रस्सी आदि के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ध्यान के लिये भी कुछ आलम्बन आवश्यक होते हैं। धर्मध्यान, शुक्लध्यान के आलम्बनों का आगम में वर्णन मिलता है। धर्मध्यान के चार आलम्बन हैं 1. वाचना पढ़ाना, 2. प्रतिप्रच्छना - शंका निवारण के लिए प्रश्न पूछना, 3. परिवर्तना- पुनरावर्तन करना, 4. अनुप्रेक्षा - अर्थ का चिन्तन करना । - शुक्लध्यान के चार आलम्बन हैं - 1. क्षांति क्षमा, 2. मुक्ति-निर्लोभता, 3. मार्दव मृदुता, 4 आर्जव - सरलता । 173 क्रम - • ध्यान के क्रम में शरीर की स्थिरता, वाणी का मौन तथा मन की एकाग्रता जरूरी है। योगशास्त्र में ध्यान का क्रम बताते हुए लिखा है कि पहले लक्ष्य वाले ध्यानों का अभ्यास करके फिर निरालम्बन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। पहले स्थूल ध्येयों का चिन्तन फिर क्रमश: सूक्ष्म-सूक्ष्मतर ध्येयों का चिन्तन करना चाहिए। पहले सालम्बन ध्यान का अभ्यास करके फिर निरालम्बन ध्यान में प्रवृत्त होना चाहिए। इस क्रम के साथ तत्त्ववेत्ता तत्त्व को प्राप्त कर लेता है । - ध्येय - जैनाचार्यों ने ध्येय के संबंध में कहा कि ध्येय तीन प्रकार का होता है। 1. परालम्बन इसमें दूसरे पदार्थ का आलम्बन लेकर चित्त को स्थिर करने का प्रयास किया जाता है। जैसे एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थिर रखकर ध्यान करना । 2. स्वरूपावलम्बन इसमें बाह्य दृष्टि बन्द कर कल्पना के नेत्रों से स्वरूप का चिन्तन किया जाता है । आचार्य हेमचन्द्र और आचार्य शुभचन्द्र ने पिण्डस्थ पदस्थ आदि जो ध्यान व धारणा के प्रकार बताये हैं, वे सभी इसी के अन्तर्गत आते हैं। 3. निरालम्बन - इसमें किसी प्रकार का अवलम्बन नहीं होता। मन विचारों से पूर्ण तथा शून्य होता है। - 1. महापुराण, 21/60-64; Jain Education International 2. योगशास्त्र 10/5 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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