Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 162
________________ लेश्या और मनोविज्ञान समस्त क्रियाओं का अभिप्रेरक है। जब तक आत्मसिद्धि प्राप्त नहीं होती, व्यक्ति के व्यक्तित्व में परिपक्वता नहीं आती। 152 परिपक्व व्यक्तित्व के प्रयोजनपूर्ण समायोजन से व्यक्ति सत्य की अनुभूति करता है । गीता का स्थितप्रज्ञ, बौद्ध दर्शन का अर्हत और जैनधर्म के वीतराग का जीवनादर्श परिपक्व व्यक्तित्व की सर्वांगीण व्याख्या देता है और इस व्याख्या में मुख्य तत्त्व है - समायोजन/ सन्तुलन/ सामंजस्य । पाश्चात्यदर्शन प्राणी और परिस्थिति के बीच समायोजन को स्वीकृति देता है जबकि भारतीय चिन्तन में यह समायोजन व्यक्ति के भीतर ही होता है । वस्तु में राग और द्वेष की अभिवृत्तियां स्वयं में कुछ नहीं होतीं। उसके प्रति प्रियता - अप्रियता की अभिव्यक्ति में मनुष्य का मूर्च्छाभाव स्वयं कारण है । जो राग-द्वेष की चेतना को परिष्कृत कर आत्मपूर्णता तक पहुंच जाते हैं वे परिपक्व व्यक्तित्व के धनी बन जाते हैं । गीता में श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ का लक्षण बताते हुए कहते हैं जब व्यक्ति मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का परित्याग कर देता है, आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट होता है, दुःखों की प्राप्ति में भी जो उद्विग्न नहीं होता तथा सुखों के प्रति जिसके मन में कोई स्पृहा नहीं होती, जिसके राग, भय और क्रोध समाप्त हो गये हैं अर्थात् वीतराग है, जिसकी किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं है और जो शुभाशुभ के प्राप्त होने पर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, जिसकी इन्द्रियां सब प्रकार के विषयों से वश में की हुई हैं, ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहा जाता है । ' बौद्ध दर्शन में अर्हत् का जीवनादर्श बताते हुए लिखा है कि जो राग, द्वेष और मोह से ऊपर उठ चुका है, जिसमें किसी भी प्रकार की तृष्णा नहीं है, जो 'सुख-दु:ख, लाभअलाभ और निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखता है, वही अर्हत् है । अर्हत् पृथ्वी के समान क्षुब्ध नहीं होता, इन्द्र-स्तम्भ के समान अपने व्रत में दृढ़ होता है। झील के सदृश कीचड़ या चित्तल से रहित है, सम्यक्ज्ञान से उसका चित्त उपशांत होता है । सुत्तनिपात में अर्हत् की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि अर्हत् वह है जो क्रोध, त्रास, आत्मप्रशंसा और चंचलता रहित है। विचारपूर्वक बोलता है। जो गर्वरहित, वाक्संयमी है। आसक्ति, ढोंग, स्पृहा और मात्सर्य से रहित है । प्रगल्भी, चुगलखोर, प्रिय वस्तुओं में आसक्त नहीं है । घृणा, अभिमान से रहित है। शांत और प्रतिभाशाली है। उसमें भव और विभव के प्रति घृणा नहीं है। विषयों के प्रति उपेक्षा रखता है । 1. धम्मपद 95-97; 2 सुत्तनिपात 48/2-6, 9-10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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