Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 159
________________ संभव है व्यक्तित्व बदलाव 149 व्यक्ति बार-बार द्वन्द्व का अनुभव करता है तब उसका व्यक्तित्व द्वन्द्वात्मक हो जाता है और साथ ही उसमें द्वैधवृत्ति (Ambivalence) उत्पन्न हो जाती है। इस द्वैधवृत्ति के कारण व्यक्ति समय पर निर्णय नहीं कर पाता। दुविधा और असमंजसता भी व्यक्ति पर बुरा प्रभाव डालती है। द्वन्द्व की गहनता शक्ति और समय की क्षति करती है। रात-दिन द्वन्द्व के निराकरण में लगे रहने से कालान्तर में व्यक्ति कुसमायोजित हो जाता है। द्वन्द्व की गहनता व्यक्ति के भावों से संबंधित है । गहन भावात्मक द्वन्द्व (Emotional Conflict) का हानिकारक प्रभाव आता है। द्वन्द्व निराकरण में शुभ लेश्या का होना जरूरी है। जब तैजस लेश्या जागती है तब निर्द्वन्द्वता, आत्मनियंत्रण की शक्ति, तेजस्विता प्रकट होती है। भीतरी सुख जागता है। द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं। जब कारणों की मीमांसा होती है, तब उसके निराकरण में व्यक्ति बारबार संकल्प और प्रयत्न करता है। जैन-दर्शन के अनुसार अच्छे-बुरे भाव-परिणाम सिर्फ वर्तमान जीवन के ही उत्तरदायी नहीं होते, वे भावी जीवन के सूत्रधार भी बनते हैं। स्थानांग सूत्र' में शीलगुणों (Traits) की पृष्ठभूमि पर ही मनुष्य के भावी जीवन की विस्तृत व्याख्या की गई है। वहां लिखा है - मनुष्य में यदि प्रकृति भद्रता है, प्रकृति विनीतता है, सहृदयता है और परगुण-सहिष्णुता है तो वह मनुष्यगति का बन्ध करता है। मनुष्य यदि अमर्यादित हिंसा करता है, अमर्यादित संग्रह करता है, पंचेन्द्रियवध करता है और मांसभक्षण करता है तो वह नरक-गति का बन्ध करता है। मनुष्य यदि माया-प्रवंचना करता है, औरों के साथ धोखा करता है, असत्य संभाषण करता है और झूठा तोल-माप करता है तो वह तिर्यंच-गति का बन्ध करता है। मनुष्य सराग संयम, संयमासंयम, बालतप कर्म और अकाम निर्जरा करता है तो वह देवगति का बन्ध करता है। व्यक्ति की भावचेतना ही उसके व्यक्तित्व के विघटन या संगठन की मुख्य घटक बनती है। परिपक्व व्यक्तित्व __अशुभ से शुभ लेश्या की ओर किया गया प्रस्थान मनुष्य को एक परिपक्व व्यक्तित्व की पहचान देने लगता है। जब शुभ लेश्या का जागरण होता है तब व्यक्ति में आत्मगुण अनावृत्त होते हैं। वह मिथ्यादृष्टि से व्रती, व्रती से महाव्रती, महाव्रती से वीतरागी बनने का पराक्रम करता है। समत्वदर्शिता प्रकट होती है। उसमें लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जन्म-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा के अनुकूल-प्रतिकूल क्षणों में सन्तुलित रहने का सामर्थ्य जाग जाता है। 1. ठाणं 4/628-31 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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