Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 152
________________ 142 • मानसिक एवं कायिक शौच से रहित • • अशुद्ध आचार (दुराचारी) • कपटी, मिथ्याभाषी • आत्मा और जगत के विषय में मिथ्या दृष्टिकोण अल्पबुद्धि, क्रूरकर्मी हिंसक, जगत् का नाश करने वाला • • • कामभोग-परायण • क्रोधी इंद्रियों का दमन करने वाला • स्वाध्यायी, दानी एवं उत्तम कर्म करने वाला · अहिंसायुक्त, दयाशील तथा अभयी अक्रोधी, क्षमाशील, त्यागी अपिशुनी तथा सत्यशील अलोलुपी (इन्द्रिय विषयों में अनासक्त) · · लेश्या और मनोविज्ञान · तेजस्वी, धैर्यवान, कोमल • लोक और शास्त्र - विरुद्ध आचरण में लज्जा का अनुभव करने वाला • तृष्णायुक्त, चोर श्या सिद्धान्त की भाषा में कर्म-विशुद्धि के आधार पर व्यक्तित्व के दो प्रकार किए जा सकते हैं - 1. औदयिक व्यक्तित्व 2. क्षायोपशमिक या क्षायिक व्यक्तित्व । दूसरे शब्दों में छद्मस्थ और वीतराग । Jain Education International औदयिक व्यक्तित्व - कर्मशास्त्रीय मीमांसा में औदयिक व्यक्तित्व पहचान के लिए अज्ञान, निन्द्रा, सुख-दुःख, आश्रव, वेद, आयु, गति, जाति, शरीर, लेश्या, गोत्र, प्रतिहत शक्ति, छद्मस्थता, असिद्धत्व जैसे औदयिक भाव बतलाए गए हैं। इनके आधार पर औदयिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है । जब तक प्राणी कर्म से बंधा है तब तक अपने कृतकर्मों के अनुसार नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में भ्रमण करता रहता है। जन्म और मृत्यु की इस परम्परा से कभी दुःख, कभी सुख भोगता रहता है। उसके भीतर कषायों की प्रगाढ़ता रहती है। अच्छे-बुरे संस्कारों का वह अक्षय भण्डार होता है, क्योंकि लेश्या रूप भाव संस्थान उसके सूक्ष्म शरीर के साथ जुड़ा रहता है । यद्यपि लेश्या किसी कर्म का उदय नहीं है, पर यह पर्याप्ति नामकर्म के उदय अथवा पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म और कषाय इन दोनों के उदय से निष्पन्न होती है । अत: व्यक्तित्व के शुभ-अशुभ बनने में इसका सहयोग रहता है। जैन साहित्य में सभी औदयिक भाव बन्ध के कारण हैं, पर मोहजनित औदयिक भाव ही वास्तव में बंध का कारण है। उसके अभाव में सभी भाव क्षायिक बन जाते हैं, क्योंकि जब तक मोह की सत्ता रहती है, मन पर वासनाएं, राग-द्वेष जनित संस्कार हावी रहते हैं, दृष्टिकोण सही नहीं बन पाता । बुद्धि असन्तुलित हो जाती है। अच्छा आचरण चाहता हुआ भी नहीं कर सकता। वह क्रोध, मान, माया और लोभ की तीव्र ज्वाला में जलता रहता है । उसकी कथनी और करनी में बहुत अन्तर होता है। इसीलिए अशुभ लेश्या में ऐसे व्यक्तित्व को छद्मस्थ की संज्ञा दी गई है। स्थानांग सूत्र' में कहा गया है कि छद्मस्थ व्यक्ति वह होता है, जो प्राणातिपात / हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, ऐन्द्रिक सुखों में डूबा रहता है, पूजा सत्कार की 1. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2/54; 2. ठाणं 7/28 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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