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व्यक्तित्व और लेश्या
शरीर रसायन
नाड़ी ग्रंथि संस्थान और शरीर रचना के अतिरिक्त व्यक्तित्व के जैवकीय कारकों में शारीरिक रसायन का उल्लेख भी आवश्यक है । प्राचीन काल से मनुष्य स्वभाव के कारक उसके शरीर-रसायन तत्त्वों को मानता आया है।
आदतन आशावादी (Sanguin) व्यक्ति में रक्त की प्रधानता, चिड़चिड़े व्यक्ति में (Choleric) पित्त (Bile) की प्रधानता, शांत (Phlegmatic) व्यक्ति में कफ (Phlegm ) की प्रधानता, उदास (Melancholic) व्यक्ति में तिल्ली (Spleen) की प्रधानता मानी गयी है । रसायनिक तत्त्वों के आधार पर व्यक्तित्व में आने वाला अंतर सभी वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है।
प्राचीन चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद का अभिमत भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । आयुर्वेद मानता है कि वात, पित्त, कफ के संतुलन असंतुलन पर स्वस्थता / अस्वस्थता आधारित है । त्रिदोष से केवल शरीर और मन ही बीमार नहीं होता, हमारा भावपक्ष भी इससे प्रभावित होता है। जैसे -
1. वायु का प्रकोप बढ़ने पर भय अधिक लगता है।
2. पित्त का प्रकोप बढ़ने पर क्रोध बढ़ता है।
3. कफ का प्रकोप बढ़ने पर तंद्रा, आलस्य, शोक सताता है।
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भाव और रसायन दोनों का परस्पर गहरा संबंध है। भावों का रसायनों पर और रसायनों का भावों पर प्रभाव पड़ता है। पित्त का प्राबल्य चित्त की चंचलता का हेतु है। जब हास्य, भय, शोक, मूर्खता, रति, तृष्णा अधिक होगी तो पित्त प्रकुपित हो जाएगा। जब मन जड़, अस्थिर, भयभीत, शून्य, विस्मृतियुक्त विभ्रमित होगा, तब वायु बढ़ेगी ।'
उपाध्याय मेघविजयजी ने अध्यात्म चिकित्सा के सन्दर्भ में मूर्च्छा का मुख्य कारण रक्ताधिक्य और पित्त दोनों को माना है। मोहकर्म की सभी प्रकृतियों का उदय रक्ताधिक्य और पित्त के असंतुलन से होता है।
आयुर्वेद में बताये गए तीन दोषों की अध्यात्म चिकित्सा आचार्यों ने बताई ।
ज्ञान वायु के प्रकोप को शांत करता है। दर्शन पित्त को और चरित्र कफ को शांत करता है । अत: धर्म अमृत तुल्य औषधि है ।
लेश्या के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व संरचना में वंशानुक्रम, परिवेश, नाड़ी ग्रंथि संस्थान, शरीर रसायन आदि महत्त्वपूर्ण होते हुए भी उपादान घटक के रूप में लेश्या की भूमिका विशेष अर्थ रखती है।
1. अर्हद् गीता 14 / 4, 14/7, 6/15
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