Book Title: Kumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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पुनः पाटन में प्रवेश
सिद्धराज के मरने बाद गुर्जरभूमि के अधिपति महाराज कुमारपाल देव हुए । कितनेक वर्षों तक तो वह अपने राज्य की सुव्यवस्था करने में तथा शत्रुओं का मानमर्दन करने में लगे रहे । दिग्विजय कर अनेक राजाओं को, अपनी आज्ञा के वशवर्ती किये। राज्य की सीमा भी बहुत दूर तक बढ़ाई । जब राज्य निष्कंटक हो गया और किसी प्रकार का उपद्रव न रहा तब आप शान्ति से प्रजा का पालन करने लगे। देश में सर्वत्र शान्ति फैल गई और कला कौशल की वृद्धि हो लगी । यह सब वृत्तान्त, जब भगवान् हेमचन्द्राचार्य को ज्ञात हुआ, तब, उनको अत्यन्त खुशी हुई, चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ । शासनोद्धार की की हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण होने का अवसर, नजदीक आया हुआ समझकर, पुनः पाटन नगर को पवित्र किया। श्रीसंघ ने, इस समय आपका पुरप्रवेश बड़े समारोह से कराया । आपके आगमन से शहर में सर्वत्र हर्ष छा
गया ।
प्रतिज्ञा पूर्ण, सफल मनोरथ
कुमारपाल महाराज को, पूर्वावस्था में - राज्यप्राप्ति के पूर्व में आपने अनेक संकटों से बचाये थे । इस कारण वे आपके उपकार भार से तो दबे हुए थे ही, इस समय आपने, पुनः महाराज को एक प्राणान्त भय से रक्षित किया, जिससे, उस उपकारभार की सीमा, अत्यन्त बढ़ गई। आपकी इस प्रकार निष्कारण परोपकारिता को जान कर महाराज बड़े प्रसन्न हुए । आपकी तरफ उनका भक्तिभाव अत्यन्त बढ़ गया। पूर्व में जो वचन दे चूके छे, उसका स्मरण हो आया । उदयन मन्त्री द्वारा सूरीश्वरजी को अपने पास बुलाए और चरणों में मस्तक रखकर कहा- 'भगवान् ! आपने जो जो उपकार, इस क्षुद्र प्राणी पर किये हैं, उनका बदला तो मैं अनेक जन्मों द्वारा भी नहीं दे सकता, परन्तु इस समय, जो कुछ मुझे आपकी कृपा से मिला है, उसे स्वीकार कर, उपकारके अपार भार को कुछ हलका कर, इस सेवक को उपकृत कीजिए । इस राज्य और राजा के आप ही स्वामी है । यह तन, यह मन और यह धन सब आप ही की सेवा में समर्पित है । इस अनुचर की यह तुच्छ प्रार्थना स्वीकार करें ।" राजा के इन नम्र वाक्यों को सुनकर सूरीश्वर अत्यन्त आनंदित हुए । मनोरथों के सफल होने का समय सामने आया हुआ देख, क्षण भर आनन्द के अपार सागर मे, निमग्न हो गये । आप उत्कृष्ट योगी थे । अत्यन्त निःस्पृही थे । महा दयालु थे । केवल परोपकार के निमित्त ही आपका अवतार हुआ था । आपको न धनकी जरूरत थी, न मान की । न राज्य की इच्छा थी न पूजा A । अभिलाषा थी । आपको केवल संसार मात्र के प्राणियों को अभयदान दिलाने की और परमात्मा महावीर के पवित्र शासन की वैजयन्ती पताका को, इस भूमण्डल में उडती हुई देखने की आपकी यह भव्य भावना, कल्पवृक्ष समान सर्व इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थ और
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