Book Title: Kumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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की विरसता का अनुभव होने लगा । थोड़े ही समय में आपने जैन शास्त्रोक्त उत्कृष्ट गृहस्थ जीवन पालने के लिए, द्वादशव्रत स्वरूप श्रावक धर्म अंगीकार किया । अनेक प्रकार से जैनधर्म की प्रभावना करने लगे। जैन समाज फिर एक दफह चतुर्थ काल के आ जाने का अनुभव करने लगा । सर्वत्र जैनधर्म की जय जय ध्वनि होने लगी । यह सब देखकर हेमचन्द्राचार्य अपने जीवन को सफल समझने लगे । अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई देख, स्वीय आत्मा को कृतकृत्य मानने लगे । वीतराग के सत्यधर्म का इस प्रकार उत्कर्ष देखकर, सत्युग की अपेक्षा कलियुग को ही आप श्रेष्ठ कहने लगे । महाराज कुमारपाल के नित्यपाठार्थ जो आपने 'वीतरागस्तोत्र' लिखा है, उसमें आप कहते हैं कि
यत्राल्पेनापि कालेन त्वद्भक्तैः फलमाप्यते ।
कलिकालः स एकोऽस्तु कृतं कृतयुगादिभिः । अर्थात्-हे वीतराग ! जिस कलियुग में, अल्प समय में ही तेरे भक्त श्रेष्ठ फल प्राप्त कर लेते हैं, वह कलिकाल ही हमारे लिए तो सदा रहो ! हमें उस सत्युग से क्या मतलब है कि जिसमें, तेरे धर्म के विना व्यर्थ ही संसार में मारे मारे फिरते थे । आगे चलकर आप कलिकाल में भी वीतराग के शासन की एकच्छत्रता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
श्राद्धः श्रोता सुधीर्वक्ता युज्येयातां यदीश तत् ।
त्वच्छासनस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं कलावपि ।। अर्थात्-हे देव ! यदि, शुद्ध श्रद्धा से निर्मल है अन्तःकरण जिसका ऐसा, श्राद्ध तो हो, और सकलशास्त्रपारंगत तत्त्वपारीण ऐसा, वक्ता हो, तो कलिकाल में भी तेरे शासन का एकच्छत्र साम्राज्य हो सकता है । यह श्लोक बड़े मार्के का है, इसमें भगवान् श्रीहेमचन्द्राचार्य ने अपने जीवन का अनुभव प्रगट किया है। वे कहते हैं कि जहाँ, युगान्तर्वर्ती सकल शास्त्र का पारगामी (मेरे समान) जैनधर्म का वक्ता-उपदेशक है, और चौलुक्यचक्रचूडामणि महाराज श्रीकुमारपाल देव जैसा श्रोता-श्रावक है, तब इस कलिकाल में भी जैन शासन का, एकच्छत्र साम्राज्य हो इसमें आश्चर्य क्या ?
सूरीश्वर की ज्ञानशक्ति-ग्रन्थनिर्माण कार्य
___ भगवान् हेमचन्द्राचार्य के जीवन को जगत् में शाश्वत प्रकाशित रखनेवाला और अन्य धर्मियों को भी आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला, उनका अगाध ज्ञानगुण था । उनके जैसा सकल शास्त्रों में पारंगत, ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा । इस अपरिमित ज्ञानशक्ति से मोहित होकर, तत्कालीन सर्व धर्म के विद्वानों ने 'कलिकालसर्वज्ञ' जैसी महती उपाधि, उनको समर्पण की थी। सचमुच ही आप 'कलिकालसर्वज्ञ' थे, इसमें जरा भी अत्युक्ति नहीं । इस बात की
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