Book Title: Kumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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कुमारपालप्रतिबोधसक्षेपः
परदव्वहरणपावदुमस्स धणहरण-मारणाईणि । वसणाई कुसुमनियरो नारयदुक्खाइं फलरिद्धी ॥२२७|| जग्गंतो सुत्तो वा न लहइ सुक्खं दिणे निसाए वा । संकाछुरियाए छिज्जमाणहियओ धुवं चोरो ॥२२८॥ जं चोरियाए दुक्खं उब्बंधण-सूलरोवणप्पमुहं । एत्थ वि लहेइ जीवो तं सव्वजणस्स पच्चक्खं ॥२२९।। दोहग्गमंगछेयं पराभवं विभवभंसमन्नं पि । जं पुण परत्थ पावइ पाणी तं केत्तियं कहिमो ॥२३०॥ हरिऊण परस्स धणं कयाणुतावो समप्पए जइ वि । तह वि हु लहेइ दुक्खं जीवो वरुणो व्व परलोए ॥२३१॥
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[चौर्यकर्मफलविषयं वरुणकथानकमत्र कथितम् ।] . रन्ना भणियं-भयवं ! पुव्वं पि मए अदिन्नमन्नधणं । न कयावि हु गहियव्वं नियरज्जे इय कओ नियमो ॥२३२।। जो उण कयाइ कस्स वि कयावराहस्स कीरए दंडो । सो लोयपालणनिमित्तमव्ववत्था हवइ इहरा ॥२३३।। जं च रुयंतीण धणं महंतपीडानिबंधणत्तेण । बहुपावबंधहेउं अओ परं तं पि वज्जिस्सं ।।२३४॥ न यन्मुक्तं पूर्वं रघु-नघुष-नाभाग-भरतप्रभृत्युर्वीनाथैः कृतयुगकृत्योत्पत्तिभिरपि । विमुञ्चन् सन्तोषात्तदपि रुदतीवित्तमधुना कुमारक्ष्मापाल ! त्वमसि महतां मस्तकमणिः ॥२३५।। इय सोमप्पहकहिए कुमारनिव-हेमचंदपडिबद्धे ।
जिणधम्मप्पडिबोहे समथिओ पढमपत्थावो ॥२३६।। इत्याचार्यश्रीसोमप्रभविरचिते कुमारपालप्रतिबोधे प्रथमः प्रस्तावः ॥
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