Book Title: Kumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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कुमारपालचरित्रसङ्ग्रहः इय जीवदयाहेउं संसारसमुद्दसंतरणसेउं । दाणं मोक्खनिदाणं कहिऊण गुरू भणइ एवं ॥३९९।।
६६२८. सूरिप्रदत्तः शीलव्रतोपदेशः ।।
जीवदयं काउमणो मणुओ सीलं नरिंद ! पालिज्ज । जम्हा जिणेहिं भणिओ मेहुणसन्नाइ जीववहो ॥४००।। रमणीण संगमे होइ मेहुणं तं धणं विणा न हवे । होइ धणं आरंभाओ तत्थ पुण नत्थि जीवदया |४०१।। अगणियकज्जाऽकज्जा निरग्गला गलियउभयलोयभया । मेहुणपसत्तचित्ता किं पावं जं न कुव्वंति ॥४०२।। जलणो वि जलं जलही वि गोपयं पव्वओ वि समभूमी । भुयगो वि होइ माला विसं पि अमयं सुसीलाण ॥४०३॥ आणं ताण कुणंति जोडियकरा दास व्व सव्वे सुरा, मायंगाहिजलग्गिसीहपमुहा वटुंति ताणं वसे । हुज्जा ताण कुओ वि नो परिभवो सग्गाऽपवग्गसिरी ताणं पाणितलं उवेइ विमलं सीलं न लुपंति जे ॥४०४।। विप्फुरइ ताण कित्ती लहंति ते सग्ग-मोक्खसुक्खाइं । सीलं ससंकविमलं जे सीलवइ व्व पालंति ॥४०५।।
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[अत्र शीलव्रते शीलवत्यादिकथानकान्यनुसन्धेयानि ।] इय सीलधम्ममायन्निऊण भवजलहितारणतरंडं । संविग्गमणो राया गिण्हइ नियमं गुरुसमीवे ॥४०६।। अट्ठमि-चउद्दसीपमुहपव्वदियहे सुनिच्चमेव मए । कायव्वं बंभवयं भयवं ! मणवयणकाएहिं ॥४०७।।
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