Book Title: Kumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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तत्पर, ऐसे महाराजाधिराज कुमारपाल देव द्वारा, पूर्ण होगी, ऐसा जानकर राजा से कहा"राजन् ! भिक्षा माँगकर लूखे सूके अन्न द्वारा उदरपूर्ति करने वाले, जंगलों और शून्य गृहों में भूमिमात्र पर पड़े रहनेवाले और केवल परमात्मा का ध्यान धरनेवाले हम योगियों को, तुमारा राज्य तो क्या परन्तु देवाधिपति महेन्द्र का महाराज्य भी, तुच्छ सा प्रतीत होता है । हमारे ब्रह्मानन्द के अनन्त सुख आगे, समग्र संसार का वैभव भी क्षुद्रमात्र ही प्रतीत होता है, तो फिर, परिणाम में विरस ऐसे इस तुच्छ राज्य को लेकर हम क्या करें ? हमने जो तुम्हारे ऊपर कुछ उपकार किया है वह स्वार्थसाधन के लिए नहीं, किन्तु, भावी काल में तुम्हारे द्वारा, जगत् का महान् उपकार होनेवाला समझकर, हमारा मुख्य कर्तव्य जो संसार की सेवा करना है उसका पालन करने के लिए, हमने तुम्हारी सहायता की है। पूर्व सुकृत के योग से अब तुम्हें उत्तम संयोग मिले हैं, इससे, इनके द्वारा, संसार को सुख पहुँचा कर अपने प्रजापति पद को सार्थक करो । यदि, हमारे उपकार का बदला चुकाने की ही, तुम्हारी दृढ़ इच्छा है, तो हमारी इच्छा पूर्ण करो। हम जगत् में अहिंसा और जैनधर्म का पूर्ण रूप से उत्कर्ष देखना चाहते हैं, इस लिए, हमारी इन तीन आज्ञाओं का पालन करो, जिससे तुम्हारा और तुम्हारी प्रजा का कल्याण हो । प्रथम तो, अपने राज्य में प्राणीमात्र का वध बन्ध कर सब जीवों को अभयदान दो । दूसरा, प्रजा की अधोगति के मुख्य कारण, जो दुर्व्यसन द्यूत, माँस, मद्य, शिकार, आदि हैं, उनका निवारण करो । तीसरा, परमात्मा महावीर की पवित्र आज्ञाओं का पालन कर, उसके सत्य धर्म का प्रचार करो ।" महाराज कुमारपाल बड़े कृतज्ञ थे, भव्य थे, दयालु थे, और अल्प- संसारी थे । अल्प ही समय में मुक्ति जानेवाले होने से उनके विशुद्ध हृदय में, हेमचन्द्राचार्य के इस वचनामृत से बोधि - बीज अंकुरित हो गया । महाराज ने सूरीश्वरजी के चरणों में फिर मस्तक रखकर कहा - " भगवन्! आपकी सर्व आज्ञायें मुझे शिरसा वंद्य हैं ! जीवित पर्यन्त इन पवित्र आज्ञाओं का उत्कृष्टतया पालन करने में, पूर्ण प्रयत्न करूँगा । आप ही मेरे स्वामी, गुरु और प्राण स्वरूप है ।" सूरीश्वरजी को, महाराज के इन वचनों से जो आनन्द हुआ उसके वर्णन करने की शक्ति किसमें है ।
जैनधर्म का साम्राज्य
महाराज कुमारपाल ने उसी क्षण से, गुरु महाराज की आज्ञाओं को अमल में लाने की शुरुआत की । धीरे धीरे आपने अपने सारे राज्य से हिंसा राक्षसी को देशनिकाला दिया । यहाँ तक कि, मनुष्य 'मर' और 'मार' इन शब्दों को भी भूल गये ! पशु से लेकर कीडी और जूँ जैसे अतिक्षुद्र प्राणी पर्यन्त के किसी जीव को, कोई मनुष्य कष्ट नहीं पहुँचा सकता था । मनुष्य जाति के अवनति के कारणभूत दुर्व्यसनों का भी देश से बहिष्कार कराया । अनीतिका नाम सुनना भी प्रजा भूल सी गई ! महाराज निरन्तर सूरीश्वर का धर्मोपदेश सुनने लगे । उनकी दिन प्रति दिन जैनधर्म में श्रद्धा बढ़ने लगी । उनको जगत् जंजाल मिथ्या भासने लगा, संसार
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