Book Title: Kumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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इस प्रकार कुमारपाल को अपने पूर्वजों से उत्तम गुणों की अमूल्य निधि मिली थी । हेमचन्द्र जैसे महान् साधु पुरुष के सत्संग से वह धर्मात्मा 'राजर्षि' की लोकोत्तर पदवी के महान् यश का. उपभोक्ता हुआ । हेमचन्द्रसूरि ने उसके यश को अमर बनाने के लिए 'अभिधान चिन्तामणि' जैसे प्रमाणभूत शब्दकोश के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में उसके लिए
कुमारपालचौलुक्यो राजर्षिः परमार्हतः ।
मृतस्वमोक्ता धर्मात्मा मारिव्यसनवारकः ॥ ऐसे उपनाम ग्रथित कर सार्वकालिक संस्कृत वाङ्मय में उसके नाम को सार्वभौमिक शाश्वत बना दिया ।
श्रमणोपासक कुमारपाल इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि कुमारपाल अपने अन्तिम जीवन में एक चुस्त जैन राजा था । उसने जैनधर्म प्रतिपादित उपासक अर्थात् गृहस्थ- श्रावक धर्म का दृढ़ता के साथ पालन किया था । ऐतिहासिक काल में कुमारपाल के सदृश जैन धर्म का अनुयायी राजा शायद ही कोई हुआ हो। जैन साहित्य में यों तो बहुत से राजाओं का जैन होने का जिक्र आता है। उदाहरण के तौर पर उज्जयिनीका विक्रमादित्य, प्रतिष्ठानपुर का सातवाहन, वलभी का शिलादित्य, मान्यखेटका अमोघवर्ष, गोपगिरिका आमराज-इत्यादि राजा जैनधर्म के अनुरागी थे। लेकिन वे सब राजा अगर जैनधर्म के अनुरागी बने होंगे तो इतने ही अर्थ में कि उन्होमने जैनधर्म और उनके अनुयायियों में अपना सविशेष अनुराग या पक्षपात बताया होगा, समय समय पर जैन गुरुओं को सबसे ज्यादा आदर प्रदान किया होगा और उनके उपदेश से प्रभावित हो कई एक जैन मन्दिरों आदि का निर्माण भी कराया होगा। कुछ उससे आगे बढ़कर वर्ष के अमुक दिनों या महीनों में जीवहिंसा प्रतिबन्धक राजाज्ञाएँ निकाली होंगी और स्वयं भी मद्यमाँस का सेवन न करने की प्रतिज्ञाएँ की होंगी । लेकिन कुमारपाल के समान गृहस्थ धर्म के आदर्श रूप सम्पूर्ण बारह व्रतों का तो किसी ने अंगीकार नहीं किया होगा ।
उसके द्वारा अंगीकार किये गए उन द्वादश व्रतों का सविस्तर वर्णन, जैन प्रबन्धों में नाना उदाहरणों के साथ दिया गया है। उदाहरणों में कुछ अतिशयोक्ति भले ही हो लेकिन मूल बात मिथ्या नहीं है-यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है और जो बात स्वयं हेमचन्द्र ही लिखते हैं उसमें असत्य को अवकाश ही कहाँ ? मन्त्री यश:पाल और सोमप्रभाचार्य की जिन कृतियों का परिचय मैंने ऊपर दिया है उनके वर्णनों से यह प्रतीत होता है कि कुमारपाल ने विक्रम संवत् १२१६ में हेमचन्द्राचार्य के पास सकलजनसमक्ष जैनधर्म की गृहस्थ-दीक्षा धारण की थी। इस दीक्षा के धारण करते समय उसने मुख्य रूप से ये प्रतिज्ञाएँ ली थीं :
राज्यरक्षा निमित्त युद्ध के अतिरिक्त यावत् जीवन किसी प्राणी की हिंसा न करना,
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