Book Title: Kumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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अनेक प्रतिष्ठित कुटुम्बों में जैन और शैव दोनों धर्मों का पालन किया जाता था । किसी घर में पिता शैव था तो पुत्र जैन, किसी घर में सास जैन थी तो वधू शैव । किसी गृहस्थ का पितृकुल जैन था तो मातृकुल शैव और किसी का मातृकुल जैन था तो पितृकुल शैव । इस प्रकार गुजरात में वैश्य जाति के कुलों में प्रायः दोनों धर्मों के अनुयायी थे । इसलिए इस प्रकार का धर्मपरिवर्तन गुजरात के सभ्य समाज में बहुत सामान्य सी बात थी । राज्य के कारोबार में भी दोनों धर्मानुयायियों का समान स्थान और उत्तरदायित्व था । किसी समय जैन महामात्य के हाथ में राज्य की बागडोर आती तो कभी शैव महामात्य के हाथ में । लेकिन इससे राजनीति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता था । शैवों और जैनों की कोई अलग अलग समाजरचना नहीं थी । सामाजिक विधि-विधान सब ब्राह्मणों द्वारा ही नियमानुसार सम्पन्न होते थे । शैव कुटुम्बों और जैन कुटुम्बों की कुलदेवी एक ही होती थी और उसका पूजन-अर्चन दोनों कुटुम्बवाले कुलपरम्परानुसार एक ही विधि से मिल कर करते थे । इस प्रकार सामाजिक दृष्टि से दोनों में अभेद ही था। सिर्फ धर्मभावना और उपास्य देव की दृष्टि से थोड़ा सा भेद था । शैव अपने इष्टदेव शिव की उपासना और पूजा - सेवा करते, जैन अपने इष्टदेव जिनकी पूजा-अर्चना करते । शिवपूजकों के कुछ वर्गों में मद्यमाँस त्याज्य नहीं माना जाता था परन्तु जैनों में यह वस्तु सर्वथा त्याज्य मानी जाती थी । कोई भी अगर जैन बनता तो उसका अर्थ यही होता था कि उसने मद्य - माँस का सेवन त्याग दिया है और इसका त्याग कर उसने जीवहिंसा न करने का मुख्य जैन व्रत लिया है। शैव और जैन दोनों मुख्य रूप से गुजरात के प्रजाधर्म थे, तो भी सामान्य रूप से राजधर्म शैव ही माना जाता था और गुजरात के राजाओं के उपास्य देव शिव थे । राजपुरोहित शिवधर्मी नागर ब्राह्मण और राजगुरु शिवोपासक तपस्वी थे । किन्तु अणहिलपुर के संस्थापक वनराज चावड़ा से लेकर कर्णवाघेला तक गुजरात के हिन्दू राज्य काल में, जैनधर्म के अनुयायियों का सामाजिक दर्जा सबसे ऊँचा था । प्रजावर्ग में जैन जन विशेष प्रतिष्ठित एवं अग्रणी थे | राज्यशासन में भी उनका हिस्सा सबसे अधिक था । इससे राजाओं के शैव हो पर भी जैनधर्म पर उनकी सदैव आदर दृष्टि रहती थी । विद्वान् जैन आचार्य राजाओं के पास निरन्तर आते रहते थे और राजा लोग भी अपने गुरुओं के समान ही उन्हें आदर देते थे। कई बार तो राजकुटुम्बों में से भी कोई कोई जैन धर्म की संन्यास दीक्षा धारण कर लेता था । अनेक राजपुत्र जैन आचार्यों के पास शिक्षा ग्रहण करते थे । इस प्रकार राजा लोग जैनों के साथ सब प्रकार से निकट सम्बन्ध में रहते थे । उससे इनके मनमें धर्म-सम्बन्धी किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रहता था । शैव धर्म का आदर्श प्रतिनिधि सिद्धराज भी जैनों से काफी सम्बन्धित था । सिद्धपुर में रुद्रमहालय के साथ-साथ उसने 'रायविहार' नामक आदिनाथ का जैनमन्दिर भी बनवाया था । गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ का जो मुख्य जैन मन्दिर आज विद्यमान है वह भी सिद्धराज की उदारता का ही फल है । सोमनाथ की यात्रा के साथ उसने गिरनार और शत्रुञ्जय तीर्थ की भी उसी भाव से
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