Book Title: Kumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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धार्मिक- मोहजन्य नहीं थी, किन्तु जैनधर्म की सत्यता के कारण था । आप एक स्तुति में वीतराग महावीर प्रभु की स्तवना करते हुए कहते हैं कि
न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तात् परीक्षयाच्च त्वामेव वीर ! प्रभुमाश्रिताः स्म ॥
अर्थात् - हे वीर ! केवल श्रद्धा-अंधश्रद्धा से ही तेरे में हमारा पक्षपात है तथा केवल द्वेष मात्र से ही अन्यों में हमारा अनादर है, ऐसा नहीं है, किन्तु परीक्षापूर्वक, हमारा यह व्यवहार है । जैनधर्म के सिद्धान्तों को आप अखण्डनीय समझते थे, और अपने ज्ञानबल से उनकी अखण्डनीयता, समस्त प्रवादियों के सामने, अकाट्य प्रमाणों द्वारा, बड़ी निर्भीकता के साथ, सिद्ध करते थे । इसी ही स्तुति में आप अन्यत्र कहते हैं कि
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इमां समक्षं प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे ।
न वीतरागात् परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः ।।
अर्थात् - प्रतिपक्षियों के सन्मुख बड़ी गर्जना करके कहता हूँ कि, जगत् में वीतराग के सदृश तो कोई अन्य देव नहीं है और अनेकान्त (स्याद्वाद-जैन) धर्म के सिवा कोई सत्य तत्त्व नहीं है।
निष्पक्षपातता
हम ऊपर कह आये हैं कि, आपकी जो धार्मिक श्रद्धा थी वह पक्षपातपूर्ण न होकर, तात्त्विकी थी । इस का प्रमाण, सिद्धराज ने जब आपको यह पूछा था कि - ' जगत् में कौन सा धर्म संसार से मुक्त करनेवाला हैं ?' इसके उत्तर में आपने जो ब्राह्मण पुराणान्तर्गत संख्याख्यान का अधिकार सुनाया और धर्मगवेषणा के लिए जो निष्पक्षपात भाव प्रकट किया वह आपके जीवन के निष्कर्ष का एक असाधारण उदाहरण है । इस प्रसंग ने आपके जीवन को अत्यन्त महान् सिद्ध कर दिया है। यदि आप उस समय इस प्रकार का मध्यस्थता सूचक जवाब न देकर, जिस धर्म के ऊपर आपका पूर्ण विश्वास था, उसीका नाम लेते, तो आपको कौन रोकनेवाला था ? ऐसा विद्वानों में कौन था जो आपके कथनको खण्डित कर सकता ? किन्तु आप यह अच्छी तरह जानते थे कि जो भव्य और निष्पक्षपाती धर्मेच्छु होगा उसको तो, गवेषणा करने पर, निस्संदेह जैनधर्म सत्य धर्म ही प्रतीत होगा । क्योंकि आपने भी स्वयं जैनधर्म को सत्यता के कारण ही स्वीकार किया था । प्रो० पीटरसन इस विषय में लिखते हैं कि- " सिद्धराज को धर्मसम्बन्धी जो शंकायें होतीं थी, उनको, वह अन्य आचार्यों की माफक, जैनाचार्य हेमचन्द्र को भी पूछता था, और जब, अन्य आचार्य, राजा के मनको सन्तुष्ट कर सके ऐसा जवाब नहीं दे सकते थे, तब हेमचन्द्र अनेक दृष्टान्तों द्वारा ऐसा रमणीय उत्तर देता
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