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किसने कहा मन चंचल है
• संयम साधना है, संवर उसका फलित । • तप साधना है, निर्जरा उसका फलित । • अक्रिया साधना है, सिद्धि उसका फलित । • प्रत्याख्यान की चेतना तब जागृत होती है जब विवेक जागृत हो, प्रज्ञा
या भेद-ज्ञान जागृत हो । बहुत लोग मूर्छा का जीवन जीते हैं । अविवेक इतनी सघन मूर्छा है कि उसमें पता नहीं चलता कि 'मैं कौन हूं' और 'मेरा स्वभाव
क्या है ?' 'मेरा अपना क्या है ?' • मूर्छा की व्यूह-रचना • पहली रक्षापंक्ति है-आवेम । • दूसरी रक्षापंक्ति है-नींद । • तीसरी रक्षापंक्ति है-असंयम-इन्द्रिय और मन की उच्छंखलता,
चंचलता। • चौथी रक्षापंक्ति है-हेय और उपादेय का अविवेक । मिथ्यादष्टि__ कोण । दुःख और सुख का अविवेक । • विवेक-चेतना का जागरण मूर्छा के व्यूह पर पहला प्रहार करता है। • हमने राग-द्वेष को स्वभाव मान रखा है। • क्रोध को स्वभाव मान रखा है। • मान, माया, लोभ, घृणा, भय--ये सब हमारे अस्तित्व के अभिन्न
अंग बने हुए हैं । यही मूर्छा है । • विवेक जागृत होते ही इसका प्रत्यक्ष दर्शन होने लगता है
• राग मैं नहीं हूं। जो राग मुझे दुःख दे, वह मैं कैसे हो सकता हूं? ० द्वेष में नही हूं । जो द्वेष मुझे दुःख दे, वह मैं कैसे हो सकता हूं? • क्रोध मैं नहीं हूं । जो क्रोध मुझे दुःख दे, वह मैं कैसे हो सकता हूं? कायोत्सर्ग प्रतिमा ० शरीर अचेतन है । मैं शरीर नहीं हैं। • श्वास अचेतन है। मैं श्वास नहीं हूं। ० इन्द्रिय अचेतन है । मैं इन्द्रिय नहीं हूं। ० मन अचेतन है । मैं मन नहीं हूं। ० भाषा अचेतन है। मैं भाषा नहीं हूं।
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