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प्रवचन १
संकलिका
.. अग्गं च मूलं च विगिच धीरे । (आयारो, ३।३४) • पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे। (आयारो, ६१५) • से बेमि-से जहा वि कुम्मे हरए विणि विटुचित्ते, पच्छन्नपलासे,
उम्मन्गं से णो लहई । (आयारो, ६६) ० हे धीर ! तू दुःख के अग्र और मूल का विवेक कर । • तुम देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य हैं वे अवसाद को प्राप्त हो रहे हैं । • मैं कहता हूं-जैसे एक कछुआ है और एक द्रह है । कछुए का चित्त द्रह में लगा हुआ है । वह द्रह सेवाल और पद्मपत्रों से आच्छन्न है। वह कछुआ मुक्त आकाश को देखने के लिए विवर को प्राप्त
नहीं हो रहा है। ".. मुझे पता है कि आप सफल जीवन जीने के लिए
• स्वास्थ्य चाहते हैं। ० दीर्घायु चाहते हैं। ० सुख चाहते हैं।
० शान्ति चाहते हैं। विवेक के बिना शान्ति नहीं। शान्ति के बिना सुख नहीं। सुख के बिना स्वास्थ्य नहीं। स्वास्थ्य के बिना दीर्घायु नहीं। .. इसकी उपलब्धि के लिए जीवन का नया अध्ययन, नयी पद्धति अप
नाएं । कुछ समय तक पदचिह्नों पर चलें, फिर अन्तरिक्ष की यात्रा करें, जहां कोई पदचिह्न नहीं होता । वह अध्याय विचार नहीं, दर्शन है । तर्क नहीं, अनुभव है ।
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