Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 11
________________ (xiv) लिए की जाने वाली शोध-खोज के लिए इस क्षेत्र की क्षमताओं का सम्मानमानों को स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया । गत दो दशकों में लगभग प्राधी दर्जन स्वीकृत शोध प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं, तथा वर्तमान में पचीसों शोध छात्र छात्राएँ हिन्दी जैन साहित्य के विविध अंगों या पक्षों पर शोध कार्य में रत हैं। __ इस सब के बावजूद इस क्षेत्र में कई स्वटकने वाली कमियां मभो भी है, बथा-(१) हिन्दी के जैन साहित्यकारों की सूची अभी पूर्ण नहीं है--शोध खोज के फलस्वरूप उसमें कई नवीन नाम जोड़े जाने की सम्भावना है । (२) ज्ञात साहित्यकारों की भी सभी रचनाएँ ज्ञात नहीं हैं -उन में वृद्धि होते रहने की सम्भावना है। (३) सात रचनामों में से भी सच उपलब्ध नहीं हैं. और उपलब्ध रचनाओं में से अनेक अभी भी अप्रकाशित है। (४) जो कृतियां प्रकाशित भी हैं उनमें से बहुभाग के सुसम्पादित स्तरीय संस्करण नहीं हैं। (५) सभी साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रमाणिक, विशद मालोचनात्मक एवं ऐतिहासिक प्रकाश डाला जाना अपेक्षित है। (६) रचनाओं का भी विस्तृत साहित्यिक एवं समीक्षात्मक अध्ययन अपेक्षित है, भौर (७) महत्वपूर्ण जैन साहित्यकारों तथा उनकी प्रमुख कृतियों का उनके समसामयिक जैनेतर हिन्दी साहित्यकारों तथा उनकी कृतियों के माथ तुलनास्मक अध्ययन करके उनका उचित मूल्यांकन करने प्रोर समन हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका समुचित स्थान निर्धारित करने की प्रावश्यकता है। प्रसन्नता का विषय है कि जयपूर के साहित्य प्रेमियों ने श्री महावीर अन्य अकादमी की स्थापना की है, जिसके बाण सुप्रसिद्ध अनुसंघित्सु बन्धुवर डा० कस्तूरचंद जी कासलीवाल हैं। उन्हीं के उत्साह दुर्ग अध्यवसाय और ग्लानीय सप्रयास से श्री महावीर ग्रन्थ प्रकादमी उपरोक्त प्रभावों की बहुत कुछ पूर्ति में संलग्न हो गई प्रतीत होती है । उसका प्रथम पुष्प 'महाकवि ब्रह्म रायमल्ल पौर भट्टारक त्रिभुवन कोति" था, जिसमें उक्त दोनों साहित्यकारों के व्यक्तित्व एव कृतित्व पर प्रभूत प्रकाश डालते हुए उनकी रचनामों को भी सुसम्पादित रूप में प्रकाशित कर दिया है । प्रस्तुत द्वितीय पुष्प में १६ वीं पाती ई० के पूर्वार्ध के पांच प्रतिनिधि कवियोंब्रह्म बूचराज, छीहल, चतुरुमल, गरवदास और ठकुरसी के व्यक्तित्व एवं कृतीत्र पर यथासम्भव विस्तृत प्रकाश डालते हुए पोर सम्यक मूल्यांकन करते हुए उनकी सभी उपलब्ध ४४ रचनाएँ भी प्रकापित कर दी हैं। डा० कासलीवाल जी की इस प्रभूतपूर्व सेवा के लिए साहित्य जगत् चिरऋणी रहेगा । संवत् १५६१ से १६०० तक की प्रखं शती एक सम्धिकाल था । गजस्थान को छोड़कर प्रायः सम्पूर्ण उत्तर भारत में मुस्लिम शासन था । उक्त अवधि में राजधानी दिल्ली से सिकन्दर और इब्राहीम लोदी, बाबर और हुमायु", मुगल तथा शेरशाह एवं सलीमगाह सूर ने क्रमश: णासन

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