Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 10
________________ सम्पादकीय भाषा निवच पूजा-पाठों, स्तवन-विनती-पद-भजनों, छहहासा, समाधिमरण, जोगीरासा प्रभति पाठों, पुराणों की तथा कई एक सैद्धान्तिक एवं धारणानुयोगिक ग्रन्थों की भाषा वचानिकामों के नित्यपाठ, स्वाध्याय अथवा शास्त्र प्रवचनों में बहुत उपयोग के कारण वर्तमान शताब्दी ई० के प्राथमिक दशकों में, कम से कम उत्तर भारत के जनी जन मध्योत्तर कालीन पनेक हिन्दी जैन कवियों एवं साहित्यकारों के नाम मौर कृतियों से परिचित रहते पाये थे । किन्तु उस समय हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास की कोई रूपरेखा नहीं थी । कतिपय नाम आदि के अतिरिक्त पुरातन कवियों एवं लेखकों के विषय में विशेष कुछ जात नहीं था। उनका पूर्वापर भी ज्ञात नहीं था । लोकप्रियता के बल पर ही उनकी रचनाओं का प्रचलन था । मुद्रणकला के प्रयोग ने भी वैसी रचनाओं के व्यापक प्रचार-प्रसार में योग दिया । किन्तु उक्त रचनामों का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं हो पाया था। जनेतर हिन्दी जगत् तो हिन्दी जैन साहित्य से प्राय: अपरिचित ही था, अत: समग्न हिन्दी साहित्य में उसका क्या कुछ स्थान है, यह प्रश्न ही नहीं उठा था। केवल मिश्रबन्धु विनोद' में कुछएक जैन कवियों का नामोल्लेख मात्र हुआ था। जबलपुर में हुए सप्तम हिन्दी साहित्य सम्मेलन में स्व. पं० माथूराम जी प्रेमी ने अपने निबन्ध पाठ द्वारा हिन्दी जगत का ध्यान हिन्दी जैन साहित्य की भोर सर्वप्रथम प्राकर्षित किया । सन् १९१७ में वह निबन्ध “हिन्दी जन साहित्य का इतिहास" नाम से पुस्तकाकार भी प्रकाशित हो गया । शनैः शनैः हिन्दी साहित्य के इतिहासों एवं पालोचनात्मक ग्रन्थों में जैन साहित्य की पोर भी क्वचित संकेत किये जाने लगे । शास्त्र भण्डारों की खोज चाल हुई हस्तलिखित प्रसियों के मुद्रण-प्रकाशन का क्रम भी चलता रहा । सन् १९४७ में स्व. बा. कामता प्रसाद जन का हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' मोर सन् १९५६ में पं० नेमिचन्द्र शास्त्री का 'हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन' (२ भाग) प्रकाशित हुए । विभिन्न शास्त्र भण्डारों की छानबीन मोर ग्रन्थ सूरियां प्रकाशित होने लगीं। भनेकान्त, जैन सिद्धान्त भास्कर प्रादि पत्रिकाओं में हिन्दी के पुरातन जैन लेखकों मोर उनकी कृतियों पर लेख प्रकाशित होने लगे । परिणाम स्वरूप हिन्दी जैन साहित्य ने अपना स्वरूप और इतिहास प्राप्त कर लिया मोर अनेक विश्वविद्यालयों ने पी० एच. डी० मादि के

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