Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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परजा
कर्मसिद्धान्त का आशय
कर्मसिद्धान्त भारतीय चिन्तकों एवं ऋषियों के चिन्तन का नवनीत है । यथार्थ में आस्तिक दर्शनों का भव्य प्रासाद कर्म सिद्धान्त पर आधारित है। इसको यों भी कह सकते हैं कि आस्तिक दर्शनों की नींव ही कर्म सिद्धान्त है । भले ही कर्म के स्वरूप-निर्णय में मतैक्य न हो, पर अध्यात्म सिद्धि कर्ममुक्ति के विन्दु पर फलित होती है। इसमें मतभिन्नता नहीं है । प्रत्येक दर्शन में किसी न किसी रूप में कर्म की मीमांसा की गयी है। जैनदर्शन में इसका चिन्तन बहुत ही विस्तार और सूक्ष्मता से किया गया है ।
संसार के सभी प्राणधारियों में अनेक प्रकार की विषमतायें और विविधतायें दिखलाई देती हैं । इसके कारण के रूप में सभी आत्मवादी दर्शनों ने कर्म सिद्धान्त को माना है। अनात्मवादी बौद्धदर्शन में कर्मसिद्धान्त को मानने के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि--
'सभी जीव अपने कर्मों से ही फल का भोग करते हैं, सभी जीव अपने कर्मों के आप मालिक हैं, अपने कर्मों के अनुसार ही नाना योनियों में उत्पन्न होते हैं, अपना कर्म ही अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है, कर्म ही से ऊँचे और नीचे हुए हैं। (मिलिन्द प्रश्न पृ. ८०-८१)
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