Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 30
________________ न हो । परन्तु सिद्ध हुए थे इसमें तो संदेह नहीं है । इसीलिए नमस्कार महामंत्र में किसी सिद्ध या अरिहंत भगवान विशेष का नाम नहीं दिया गया है । बहुवचनांत पद दिए गए हैं । वे गुणवाचक पद है । "नमो सिद्धारण" पद से अनंत सिद्ध भगवंतो को मैं नमस्कार करता हूँ। अनन्त सिद्धों में मेरे समय हुए सिद्ध भगवन्त को भी नमस्कार हो गया तथा अनंत जीव संसार में है और सभी नमस्कार महामंत्र गिनें और सभी भिन्न-भिन्न नामोच्चार करते रहें तो मंत्र का स्वरूप कैसा बनेगा ? महामंत्र की शाश्वतता कहां से रहेगी ? अतः गुणवाची बहुवचनांत पद है। उन सभी अनंत सिद्धों को नमस्कार हो। सिद्ध-माता, अरिहंत-पिता बालक के लिए किसका महत्व है ? माता का कि पिता का ? कौन ज्यादा उपकारी है ? पुरूष वर्ग कहेगा पिता, और स्त्री वर्ग कहेगी-माता । लेकिन ऐसा भी नहीं है दोनों ही समानरूप से उपकारी है । कोई अरिहंत बना तभी तो कोई सिद्ध हुआ । अरिहंत ही नहीं हुए होते तो धर्मस्थापना कौन करता ? तीर्थ स्थापना कौन करता ? तो कोई जीव धर्म पाता ही कहां से ? और धर्म ही नहीं पाता तो कोई मोक्ष में जाता ही. कहां से ? अतः अरिहंत पिता के स्थान पर प्रथम उपकारी है। तथा बाद में माता जिस तरह ९।। महिने अपने उदर में धारण करके प्रसवपीडा को सहकर भी संतान को जन्म देती है तभी तो बालक इस पृथ्वी पर अवतरता है। इसी तरह सिद्ध बनने वाले जीव ने हमको निगोद के गोले से बाहर निकाला अर्थात बाह्य संसार में जन्म दिया । अतः सिद्ध परमात्मा मातृपद पर माता की तरह पूजनीय है। इसीलिए “त्वमेव माता-पिता त्वमेव..." हे भगवन् ! आप ही माता हो आप ही पिता हो.. इत्यादि हम प्रभु को जो उपमा देते हैं वह यथार्थ ही है । मातृ स्वरूप में प्रभु सिद्ध परमात्मा और पितृ स्वरूप में प्रभु अरिहंत परमात्मा अनन्त उपकारी है । अब हमें अनन्त जन्म तक भी उनका उपकार नहीं भूलना चाहिए । माता ने तो ९।। महिने धारण करके जन्म दे दिया । परन्तु अनन्तकाल तक निगोद की एक गोले की काली अन्धकारभरी कोटडी में जो असह्य कल्पनातीत वेदना सहन कर रहे थे, अनन्त जन्म-मरण कर रहे थे उसमें से जन्म दिया हैबाहर निकाला है अतः सिद्ध परमात्ना तो माता से भी अनन्तगुने ज्यादा उपकारी है । अनन्त-अनन्त गुना ज्यादा उपकार हैं मुक्तात्मा का । भले ही वह हमारी आंखों के सामने प्रत्यक्ष स्वरूप न हो परोक्ष स्वरूप में ही हो परन्तु माने बिना स्वीकारे बिना नहीं चलेगा । चलना सम्भव ही नहीं है। श्री नमस्कार महामंत्र का अनन्तबार जप-ध्यान-स्मरण करें तो भी हम इस कर्म की गति न्यारी

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