Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 163
________________ लोभ ये कषाय के मुख्य चार भेद हैं । परन्तु मूलरूप से देखा जाय तो राग-द्वेष ये दो ही मूल कषाय हैं । राग के भेद में माया पौर लोभ आते हैं । तथा द्वेष के भेद में क्रोध और मान गिने जाते हैं। कषाय राग दुष. माया लोभ क्रोध मान योग-मन-वचन-काया के ये तीन योग भी कम बंध के हेतु है । जीवात्मा सारी प्रवृत्ति इन तीन करणों के सहारे ही करती है। किसी भी प्रकार की क्रिया में ये तीन सहायक है । मन से सोवने-विचारने की क्रिया होती है । वचन से भाषा का वाग् व्यवहार होता है । काया (शरीर) से हलन-चलन, गमना-गमन, आना-जाना, सोना-उठना, खाना-पीना, आहार-निहार आदि की क्रियाएं होती है । इन्द्रियां भी शरीरान्तर्गत ही गिनी जाती है । शरीर के ही अंग है । अतः अख-कान आदि पांचों इन्द्रियों से देखना, सुनना, चखना, स्वादादि अनुभव करना, स्पर्शानुभव करना ये सारी क्रियाएं भी काया से ही होती है । काया की क्रिया प्रवृत्ति कहलाती है तो मन की क्रिया वृत्ति के रूप से समझी जाती है। ये सभी कर्म बंध में कारण हैं । अतः बंध हेतु के भेदों में योग को भी कर्म बंध का हेतु माना गया है। वैसे शास्त्र में योग १५ प्रकार का बताया गया है। इस तरह मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांचों प्रमुख रूप से कर्म बंध के हेतु है । इनसे कर्म का बंध होता है । अर्थात् आश्रव मार्ग से आत्म प्रदेश में प्रविष्ट की हुई कार्मण वर्गणा जो पुद्गल परमाणु स्वरूप है उनका आत्मा के साथ एक रस होना, क्षीर-नीरवत् या तप्त-अयःपिण्डवत् एक भाव होना बंध कहलाता है । यह बंध ४ प्रकार का है । बध के ४ प्रकार स बन्धः ॥ ८.३ ॥ प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशाल्ताद्विधयः ।। ८.४ कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का आत्म प्रदेशों के साथ एकरसी भाव होकर परस्पराश्लेष रूप से रहना ही बंध है । उमास्वाति महाराज ने तत्त्वार्थाधिगम १६२ कर्म की गति न्यारी

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