Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

Previous | Next

Page 167
________________ इह नारण-दसणावरण-वय-मोहाउ-नाम-गोत्राणि । विग्घं च पण नव दु अट्ठावीस चउ-तिसय-दु-परणविहं ।। नवतत्त्व प्रकरण की ३९वीं गाथा में कर्म की मूल आठ प्रकृतियों के नाम तथा उनके अवान्तर भेदों की संख्या भी बताई है । अात्म गुरणों के नाम ८ मूल प्रकृति के नाम उत्तर प्रकृति की संख्या (१) अनन्त ज्ञान गुण ज्ञानावरणीय कर्म (२) अनन्त दर्शन गुण दर्शनावरणीय कर्म (३) अनन्त सुख गुण वेदनीय कर्म (४) अनन्त चारित्र गुण मोहनीय कर्म (५) अक्षय स्थिति गुण आयुष्य कर्म (६) अनामी-अरूपी गुण नाम कर्म (७) अगुरूलघु गुण गोत्र कर्म (८) अनन्तवीर्य गुण अन्तराय कर्म عمر م ه ه ه ش به ८ गुण मूल प्रकृति ८ उत्तर प्रकृति-१५८ (१) ज्ञानावरणीय कर्म की ५ प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के ५ प्रकार के ज्ञान को ढकने का है । (२) दर्शनावरणीय कर्म की ९ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा की देखने की शक्ति रूप दर्शन गुण को ढकने का है । (३) वेदनीय कर्म की २ प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अनन्त-अव्याबाध सुख गुण को ढकने का है । (४) मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अनन्त चारित्र गुण को ढककर क्रोधादि कराने का है । (५) आयुष्य कर्म की ४ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अक्षय स्थिति गुण को ढककर चार गति में जन्म-मरण कराने का है । (६) नाम कर्म की १०३ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अनामी-अरूपी निरंजन-निराकर गुण को ढककर नाम-रूप-आकृति वाला बनाने का है । (७) गोत्र कर्म की २ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अगुरूलघु गुण को ढककर उच्च-नीच गोत्र में ले जाने का है। (८) अन्तराय कर्म की ५ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अन्नत वीर्य (शक्ति) दानानि लब्धिगुण को ढककर उन लब्धि के प्राप्त होने में विघ्न करने का है । इस तरह यह प्रकृति बंध का कार्य क्षेत्र है। सभी कर्म की प्रकृतियां अपना भिन्न भिन्न स्वभाव दिखाती है । तथा आज सभी कर्म युक्त संसारी जीवों की सभी प्रवृत्ति इन कर्मों की प्रकृति (स्वभाव) के आधार पर चल रही है। अब आत्मा को चाहिए कि बलवान बनकर कर्म प्रकृतियों को हटाकर, क्षयकर, नष्टकर या दबाकर भी आत्म गुणानुरूप पुरूषार्थ करें और आत्म गुणों का प्रादुर्भाव करे यही धर्म है । १६६ कर्म की गति न्यारी

Loading...

Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178