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विहार करते हैं । बड़ी लम्बी तपश्चर्या आदि करके क्षुधा आदि सहन की जाती है। ये सारे कर्मोदय जन्य नहीं है यह विशेष धर्माराधना है । साधक वेदना को भी हसते हुए आनन्द से सहन करता है इस उदीरणा की प्रक्रिया में कई कर्म जिनका उदय में आने का काल परिपक्व नहीं हुआ है वे उदय में आकर क्षय हो जाएगे। चित्र में उदीरणा विभाग में गजसुकुमाल कायोत्सर्गध्यान में खडे हैं और सोमिल श्वसुर जलते हए अंगारे सिर पर रखकर उपसर्ग कर रहा है फिर भी मुनि महात्मा ने समता भाव से हसते हुए सहन कर काफी कर्म निजेरा की । यह उदीरणा है ।
(४) सत्ता-सत्ता का अर्थ है-अस्तित्त्व । जैसे एक करोड़पति व्यापारी जो घर में बैठा है या बाग में टहल रहा है। ऐसे समय जेब में पैसे नहीं है फिर भी श्रीमन्त पैसे वाला तो कहलाएगा ही। क्योंकि उसके करोड़ों रुपए बैंक में जमा है । व्यापारियों को ब्याज पर दिये हुए हैं । कई कम्पनियों में रोके हैं। अतः हाथ में या जेब में न भी हो फिर भी वह करोड़पति तो कहा जाएगा । उसी तरह कुछ कर्म अभी उदय में नहीं है । आज शरीर स्वस्थ है । नाखुन में भी रोग नहीं है । परन्तु कई कर्म सत्ता में पड़े हैं। उनका अस्तित्व है। जैसे एक महीने बाद की ट्रेन की टिकिट रिजर्व कराई है । और आज भले ही बाजार में घूम रहे हैं। फिर भी रिजर्व टिकिट होने से मूल सत्ता में तो जाना निश्चित है ही। उसी तरह कर्म की स्थितियां दीघावधि की है। जिसके कारण आज वे कर्म उदय में नहीं दिखाई दे रहे हैं । परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि कर्म है ही नहीं। वे कर्म सत्ता में पड़े रहते हैं । समय परिपक्व होने पर उदय में आते हैं। यह सत्ता है। जैसे भगवान महावीर ने तीसरे मरीचि के भव में नीच गोत्र कर्म बांधा था। वह लगातार १४ भव तक तो उदय में रहा । ७ बार नीच गोत्र में पटका । याचक कुल में याचक बनाया । उसके बाद वह नीच गोत्र कर्म सत्ता में छिग बैठा रहा और अन्तिम २७वें भव में पूनः उदय में आया । इस तरह जैसे पैसा खजाने में पड़ा रहता है वैसे ही कर्म भी सत्ता में पड़ता है। यह खजाने जैसा स्थान है । सत्ता में पड़े हुए कर्म काल परिपक्व होने पर उदय में आकर फल देकर निर्जरित हो जाते हैं। या उदीरणा में खिचकर लाकर निर्जरित किये जाते हैं । आश्रव मार्ग से आए हुए कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु बध हेतुओं से कर्म बन्ध होता है । बन्ध कैसी या किस तरह का होता हे ? यह जानने के लिए बन्ध की स्पृष्ट-बद्ध-निधत्त और निकाचित ये चार अवस्थाएं देखी । यह हुआ कर्मबन्ध सत्ता में पड़ा रहता है। उसके बाद उनका उदय होता है और यदि की जाय तो उदीरणा होती है । इस प्रकार कर्म बन्ध तत्व का विचार किया गया है । यद्यपि संक्षेप में है फिर भी सारभूत तत्त्व समझने में उपयोगी है इस पुस्तिका में कर्म के आगमन एवं बन्ध की प्रक्रिया समझाई गई है, जिससे कर्म कैसे बनते हैं ? कर्म क्या है ? इत्यादि समझ में आ जाय ! आगे आत्मा के प्रमुख ज्ञान गुण की विचारणा करके फिर क्रमशः एक एक कर्म की विचारणा करेंगे । इति ।
-5 शुभं भवतु 卐:१७६
कर्म की गति न्यारी