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(२) स्थिति बंध-स्थिति =काल मर्यादा-Time Limit "कर्म पुद्गल राशः का परिगहीतस्यात्मप्रदेशेष्ववस्थानं स्थिति:" ॥ कर्ता आत्मा के द्वारा परिगृहीत जो कार्मण वर्गणा के पुद्गलों की राशि आत्म प्रदेश में जितने काल तक रहे उसे स्थिति कहते हैं । उस स्थिति काल तक कर्म का आत्मा से चिपके रहना स्थिति बंध है । R.C.C. का एक मकान बन चुका है प्रब वह कितने वर्षों तक टिकेगा ? यह काल मर्यादा स्थिति कहलाती है । उदाहरणार्थ किसी मकान की स्थिति ६० वर्ष है, तो किसी मकान की १०० वर्ष है । फिर वह टूटने लगता है । सीमेन्ट के परमाणु पानी के साथ मिलकर खंभे-दिवाल के रूप में जो स्थिति है उनकी काल अवधि ६० या १०० साल रहती है। उसी तरह आत्मा के साथ मिले हुए कार्मण वर्गणा के जड़ पुद्गल परमाणुओं की आत्म प्रदेशों में रहने के काल को स्थिति बंध कहते हैं । भिन्नभिन्न कर्मों का स्थिति काल भिन्न भिन्न है । ८ कर्म जघन्य स्थिति
उत्कृष्ट स्थिति (१) ज्ञानावरणीय कर्म . १ अन्तर्मुहूर्त ३० कोड़ा कोड़ी सागरोग्म . (२) दर्शनावरणीय कर्म (३) वेदनीय कर्म
१२ ,
३० , " " (४) मोहनीय कर्म
७० , , , (५) आयुध्य कर्म
१ ,
सिर्फ ३३ सागरोपम (६) नाम कर्म
२० कोड़ा कोड़ी सागरोपम (७) गोत्र कर्म
२० " " " (८) अन्तराय कर्म
इस तालिका से संक्षेप में आठों कर्म की जधन्य अर्थत् कम से कम और उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक कर्म स्थिति बंध बतलाया है । अर्थात् आत्मा के साथ चिपका हुआ कर्म कम से कम १, ८ या १२ अ.तर्मुहूर्त तक रहता है । जबकि अधिक से अधिक उत्कृष्ट स्थिति काल २०, ३० और ७० कोड़ा कोड़ी सागरोपम का काल है।
(३) रस बंध- रस बन्ध को ही अनुभाग या अनुभाव बन्ध कहते हैं । सत्यां स्थितौ फलदान क्षमत्वादनुभाव बन्धः । कालान्तरावस्याने सति विपाकवत्ताऽनुभाव बन्धः । समासादितपरिकावस्थस्य बदरादेरित्रोपभोग्यत्वात् सर्व-देशघात्येक द्वि-त्रि-चतुः-स्थान-शुभाशुभ तीव्रमन्दादि भेदेन वक्ष्यमाणः ।।
कर्म की स्थिति होते हुए फल देने की क्षमता से अनुभाव बन्ध कहा जाता है । विपाक के काल में शुभ या अशुभ कर्म के फल का अनुभव, शुभ-पुण्य प्रकृति का मलीन परिणाम से मन्द, मैन्दतर तथा मन्दतम रूप से बन्ध होता है । उसी तरह विशुद्ध परिणाम के आधार पर तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम रूप से बन्ध होता है यह रस बन्ध है । रस बन्ध का मुख्य कारण कषाय है । कषायों के आधार पर मुख्य रूप से कर्म की गति न्यारी
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